Book Title: Shatkhandagama Pustak 05
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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[१५१
१, ६, ३१८.] अंतराणुगमे सुक्कलेस्सिय-अंतरपरूवणं
संजदासंजद-पमत्तसंजदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणेगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ ३१५ ॥
कुदो ? णाणाजीवपवाहस्स वोच्छेदाभावा, एगजीवस्स लेस्सद्धादो गुणद्धाए बहुत्तुवदेसादो ।
अप्पमत्तसंजदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥३१६ ॥
सुगममेदं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ ३१७॥
तं जहा- एक्को अप्पमत्तो सुक्कलेस्साए अच्छिदो उवसमसेढिं पडिदूर्णतरिय सव्वजहण्णकालेण पडिणियत्तिय अप्पमत्तो जादो । लद्धमंतर ।
उक्कस्समंतोमुहुत्तं ॥ ३१८ ॥
शुक्ललेश्यावाले संयतासंयत और प्रमत्तसंयतोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना और एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ ३१५॥
क्योंकि, उक्त गुणस्थानवर्ती नाना जीवोंके प्रवाहका कभी व्युच्छेद नहीं होता है । तथा एक जीवकी अपेक्षा भी अन्तर नहीं है, क्योंकि, लेश्याके कालसे गुणस्थानका काल बहुत होता है, ऐसा उपदेश पाया जाता है।
शुक्ललेश्यावाले अप्रमत्तसंयतोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ ३१६ ॥
यह सूत्र सुगम है। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ ३१७ ॥
जैसे- शुक्ललेश्यामें विद्यमान कोई एक अप्रमत्तसंयत उपशमश्रेणीपर चढ़कर अन्तरको प्राप्त हो सर्वजघन्य कालसे लौटकर अप्रमत्तसंयत हुआ । इस प्रकार अन्तर प्राप्त होगया।
उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ ३१८ ॥
१ संयतासंयतप्रमत्तसंयतयोस्तेजोलेश्यावत् । स. सि. १,८. २ अप्रमत्तसंयतस्य नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । स. सि. १.८. ३ एकजीवं प्रति जघन्यमुत्कृष्टं चान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १,८.
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