Book Title: Shatkhandagama Pustak 05
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 294
________________ छक्खडागमे जीवद्वाणं मोहणिबंधणओवसमियादिभावेहि संजदासंजदादीणं ववएसो होज्ज । तधावलंभा । ३०४ ] चदुण्हमुवसमा त्ति को भावो, ओवसमिओ भावों ॥ ८ ॥ तं जहा - एक्कवीसपयडीओ उवसामेति त्ति चदुन्हं ओवसमिओ भावो । होदु णाम उवसंतकसायस्स ओवसमिओ भावो उवसमिदासेस कसायत्तादो | ण सेसाणं, तत्थ असेसमोहस्सुवसमाभावा ? ण, अणियट्टिबादरसांपराइय- मुहुमसांपराइयाणं उवसमिदथोवकसायजणिदुवसमपरिणामा ओवसमियभावस्त अत्थित्ताविरोहा । अपुव्वकरणस्स अणुवसंतासेसकसायस्स कधमोवसमिओ भावो ! ण, तस्स वि अपुव्त्रकरणेहि पडि - समयमसंखेज्जगुणाए सेडीए कम्मक्खंडे णिज्जरंतस्स डिदि - अणुभागखंडयाणि घादिदूण कमेण ठिदि-अणुभागे संखेज्जाणंतगुणहीणे करेंतस्स पारद्भुवसमण किरियस्स तदविरोहा । जिससे कि दर्शनमोहनीय- निमित्तक औपशमिकादि भावोंकी अपेक्षा संयतासंयतादिकके औपशमिकादि भावोंका व्यपदेश हो सके। ऐसा है नहीं, क्योंकि, उस प्रकारकी व्यवस्था नहीं पाई जाती है । [ १, ७, ८. ण च एवं, अपूर्वकरण आदि चारों गुणस्थानवर्ती उपशामक यह कौनसा भाव है ? औपशमिक भाव है ॥ ८ ॥ वह इस प्रकार है- चारित्रमोहनीयकर्मकी इक्कीस प्रकृतियोंका उपशमन करते हैं, इसलिए चारों गुणस्थानवर्ती जीवोंके औपशमिकभाव माना गया है । शंका-समस्त कषाय और नोकषायोंके उपशमन करनेसे उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ जीवके औपशमिक भाव भले ही रहा आवे, किन्तु अपूर्वकरणादि शेष गुणस्थानवर्ती जीवोंके औपशमिक भाव नहीं माना जा सकता है, क्योंकि, उन गुणस्थानोंमें समस्त मोहनीयकर्मके उपशमका अभाव है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, कुछ कषायोंके उपशमन किए जानेसे उत्पन्न हुआ है उपशम परिणाम जिनके, ऐसे अनिवृत्तिकरण बादरसाम्पराय और सूक्ष्मसाम्पराय - संयतके उपशमभावका अस्तित्व माननेमें कोई विरोध नहीं है । 2 शंका- नहीं उपशमन किया है किसी भी कषायका जिसने ऐसे अपूर्वकरणसंयतके औपशमिक भाव कैसे माना जा सकता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, अपूर्वकरण-परिणामोंके द्वारा प्रतिसमय असंख्यातगुणश्रेणीरूप से कर्मस्कंधोंकी निर्जरा करनेवाले, तथा स्थिति और अनुभागकांडकोंको घात करके क्रमसे कषायकी स्थिति और अनुभागको असंख्यात और अनन्तगुणित हीन करनेवाले, तथा उपशमनक्रियाका प्रारंभ करनेवाले, ऐसे अपूर्वकरणसंयतके उपशमभावके मानने में कोई विरोध नहीं है । १ प्रतिषु ' उवसमो' इति पाठः । २ चतुर्णामुपशमकानामौपशमिको भावः । स. सि. १, ८. उवसमभावो उवसामगेसु । गो. जी १४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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