Book Title: Shatkhandagama Pustak 05
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, ८, २४७.] अप्पाबहुगाणुगमे संजद-अप्पाबहुगपरूवर्ण [ १२३
को गुणगारो १ दोण्णि रूवाणि । किं कारणं ? जेण णाण-वेदादिसव्ववियप्पेसु उवसमसेडिं चडंतजीवेहिंतो खवगसेडिं चढंतजीवा दुगुणा त्ति आइरिओवदेसादो। एगसमएण तित्थयरा छ खवगसेडिं चडंति । दस पत्तेयबुद्धा चढंति, बोहियबुद्धा अद्वत्तरसयमेत्ता, सग्गच्चुआ तत्तिया चेव । उक्कस्सोगाहणाए दोण्णि खवगसेडिं चडंति', जहण्णोगाहणाए चत्तारि, मज्झिमोगाहणाए अट्ठ । पुरिसवेदेण अत्तरसयमेत्ता, णउंसयवेदेण दस, इथिवेदेण वीसं । एदेसिमद्धमेत्ता उवसमसेटिं चढंति त्ति घेत्तव्यं ।
खीगकसायवीदरागछदुमत्था तत्तिया चेव ॥ २४७॥ केत्तिया ? अदुत्तरसयमेत्ता । कुदो ? संजमसामण्णविवक्खादो ।
गुणकार क्या है ? दो रूप गुणकार है। शंका--क्षपकोंका गुणकार दो होनेका कारण क्या है ?
समाधान-चूंकि, ज्ञान, वेद आदि सर्व विकल्पोंमें उपशमश्रेणीपर चढ़नेवाले जीवोंसे क्षपकश्रेणीपर चढ़नेवाले जीव दुगुणे होते हैं, इस प्रकार आचार्योंका उपदेश पाया जाता है।
एक समयमें एक साथ छह तीर्थकर क्षपकश्रेणीपर चढ़ते हैं । दश प्रत्येकबुद्ध, एक सौ आठ बोधितवुद्ध और स्वर्गसे च्युत होकर आये हुए उतने ही जीव अर्थात् एक सौ आठ जीव क्षपकश्रेणीपर चढ़ते हैं। उत्कृष्ट अवगाहनावाले दो जीव क्षपक श्रेणीपर चढ़ते हैं। जघन्य अवगाहनावाले चार और ठीक मध्यम अवगाहनावाले आठ जीव एक साथ क्षपकश्रेणीपर चढ़ते हैं । पुरुषवेदके उदयके साथ एक सौ आठ, नपुंसकवेदके उदयसे दश और स्त्रीवेदके उदयसे बीस जीव क्षपकश्रेणीपर चढ़ते हैं। इन उपर्युक्त जीवोंके आधे प्रमाण जीव उपशमश्रेणीपर चढ़ते हैं, ऐसा अर्थ ग्रहण करना चाहिए।
संयतोंमें क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ जीव पूर्वोक्त प्रमाण ही हैं ॥ २४७॥ शंका-क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ कितने होते हैं ?
समाधान-एक सौ आठ होते हैं, क्योंकि, यहांपर संयम-सामान्यकी विवक्षा की गई है।
१दो चेवुकोसाए चउर जहनाए मज्झिमाए । अढहियं सयं खलु सिज्झइ ओगाहणार तहा ॥ प्रवच द्वा. ५०, ४७५.
२ होति खवा इगिसमये बोहियबुद्धा य पुरिसवेदा य । उकस्सेण?त्तरसयप्पमा सग्गदो य चुदा ॥ पत्तेयबुद्धतित्थयरस्थिणउंसयमणोहिणाणजुदा । दसछकवीसदसवीसट्ठावीसं जहाकमसो ॥ जेट्ठावरबहुमझिमओगाहणगा दुचारि अवेव । जुगवं हवंति खवगा उवसमगा अद्धमेदेसि ॥ गो. जी. ६२९-६३१.
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