Book Title: Shatkhandagama Pustak 05
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 421
________________ १, ८, २८९.] अप्पाबहुगाणुगमे चदुदंसणि-अप्पाबहुगपरूवणं [३३१ दंसणाणुवादेण चक्खुदसणि-अचक्खुदंसणीसु मिच्छादिटिप्पहुडि जाव खीणकसायवीदरागछदुमत्था त्ति ओघं ॥२८६ ॥ जधा ओघम्हि एदेसिमप्पाबहुगं परूविदं तधा एत्थ वि परूवेदव्यं, विसेसाभावा । विसेसपरूवणट्टमुत्तरसुत्तं भणदि णवरि चक्खुदंसणीसु मिच्छादिट्ठी असंखज्जगुणा ॥२८७॥ को गुणगारो ? पदरस्स असंखेज्जदिभागो, असंखेज्जाओ सेडीओ, सेडीए' असंखेज्जदिमागमेत्ताओ । कुदो ? साभावियादो । ओधिदंसणी ओधिणाणिभंगो ॥ २८८ ॥ केवलदसणी केवलणाणिभंगों ॥ २८९ ॥ दो वि सुत्ताणि सुगमाणि । एवं दंसणमग्गणा समत्ता । दर्शनमार्गणाके अनुवादसे चक्षुदर्शनी और अचक्षुदर्शनी जीवोंमें मिथ्यादृष्टिसे लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक अल्पबहुत्व ओघके समान है ॥ २८६ ॥ जिस प्रकार ओघमें इन गुणस्थानवर्ती जीवोंका अल्पबहुत्व कहा है, उसी प्रकार यहांपर भी कहना चाहिए, क्योंकि, दोनों में कोई विशेषता नहीं है। अब चक्षुदर्शनी जीवोंमें सम्भव विशेषताके प्ररूपण करनेके लिए उत्तर सूत्र कहते हैं विशेषता यह है कि चक्षुदर्शनी जीवोंमें असंयतसम्यग्दृष्टियोंसे मिथ्यादृष्टि असंख्यातगुणित हैं ॥ २८७ ॥ गुणकार क्या है ? जगप्रतरका असंख्यातवां भाग गुणकार है, जो असंख्यात जगणिप्रमाण है। वे जगणियां भी जगश्रेणीके असंख्यातवें भागमात्र हैं । इसका कारण क्या है ? ऐसा स्वभावसे है। अवधिदर्शनी जीवोंका अल्पबहुत्व अवधिज्ञानियोंके समान है ॥ २८८ ॥ केवलदर्शनी जीवोंका अल्पबहुत्व केवलज्ञानियोंके समान है ।। २८९ ॥ ये दोनों ही सूत्र सुगम हैं। इस प्रकार दर्शनमार्गणा समाप्त हुई। १ दर्शनानुवादेन चक्षुर्दर्शनिना मनोयोगिवत् । अचक्षुर्दर्शनिना काययोगिवत् । स. सि. १, ८. २ प्रतिषु । सेडीओ खवगसेडी असंखेज्जदिभागो सेडीए' इति पाठः। ३ अनधिदर्शनिनामवधिज्ञानिवत् । स.सि.१,८. ४ केवलदर्शनिनां केवलज्ञानिवत् । स. सि.१,८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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