Book Title: Shatkhandagama Pustak 05
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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२२८ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, ७, ५३. उवसामगाणमुवसमिओ भावो, खवगाणं खइओ भावो त्ति उत्तं होदि । जहाक्खादविहारसुद्धिसंजदेसु चदुट्ठाणी ओघं ॥ ५३॥ सुगममेदं । संजदासजदा ओघं ॥ ५४॥ एवं पि सुगमं ।
असंजदेसु मिच्छादिट्ठिप्पहुडि जाव असंजदसम्मादिहि त्ति ओघं ॥ ५५॥ सुगममेदं, पुव्वं परूविदत्तादो ।
एवं संजममग्गणा समत्ता । दंसणाणुवादेण चक्खुदंसणि-अचक्खुदंसणीसु मिच्छादिहिप्पहुडि जाव खीणकसायवीदरागछदुमत्था ति ओघं ॥ ५६ ॥
उपशामकोंके औपशमिक भाव और क्षपोंके क्षायिक भाव होता है, यह अर्थ सूत्रद्वारा कहा गया है।
यथाख्यातविहारशुद्धिसंयतोंमें उपशान्तकषाय आदि चारों गुणस्थानवर्ती भाव ओघके समान हैं ॥ ५३ ॥
यह सूत्र सुगम है। संयतासंयत भाव ओघके समान है ॥५४॥ यह सूत्र भी सुगम है।
असंयतोंमें मिथ्यादृष्टि से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक भाव ओघके समान हैं ॥५५॥ यह सूत्र सुगम है, क्योंकि, पहले प्ररूपण किया जा चुका है।
इस प्रकार संयममार्गणा समाप्त हुई। दर्शनमार्गणाके अनुवादसे चक्षुदर्शनी और अचक्षुदर्शनियोंमें मिथ्यादृष्टि से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक भाव ओघके समान हैं ॥ ५६ ॥
१xx संयतासंयताना xx सामान्यवत् । स. सि. १,८. २xxx असंयतानां च सामान्यवत् । स. सि. १,८. ३ दर्शनानुवादेन चक्षुर्दर्शनाचक्षुर्दर्शनावधिदर्शनकेवलदर्शनिनां सामान्यवत् । स. सि. १, ८.
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