Book Title: Shatkhandagama Pustak 05
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, ७, ३.1 भावाणुगमे सासणसम्मादिहिभाव-परूवणं
[१९७ भावा णिक्कारणा उपलब्भंतीदि चे ण, विसेससत्तादिसरूवेण अपरिणमंतसत्तादिसामण्णाणुवलंभा । सासणसम्मादिट्टित्तं पि सम्मत्त-चारित्तुभयविरोहिअणंताणुबंधिचउक्कस्सुदयमंतरेण ण होदि त्ति ओदइयमिदि किण्णेच्छिज्जदि ? सच्चमेयं, किंतु ण तथा अप्पणा अस्थि, आदिमचदुगुणट्ठाणभावपरूवणाए दसणमोहवदिरित्तसेसकम्मेसु विवक्खाभावा' । तदो अप्पिदस्स दंसणमोहणीयस्स कम्मस्स उदएण उवसमेण खएण खओवसमेण वाण होदि त्ति णिक्कारणं सासणसम्मत्तं, अदो चेव पारिणामियत्तं पि । अणेण णाएण सव्वभावाणं पारिणामियत्तं पसज्जदीदि चे होदु, ण कोइ दोसो, विरोहाभावा । अण्णभावेस पारिणामियववहारो किण्ण कीरदे ? ण, सासणसम्मत्तं मोत्तूण अप्पिदकम्मादो णुप्पण्णस्स अण्णस्स भावस्स अणुवलंभा ।।
कारणके विना उत्पन्न होनेवाले परिणामका अभाव है।
शंका-सत्त्व, प्रमेयत्व आदिक भाव कारणके विना भी उत्पन्न होनेवाले पाये जाते हैं ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, विशेष सत्त्व आदिके स्वरूपसे नहीं परिणत होनेवाले सत्त्वादि सामान्य नहीं पाये जाते हैं।
शंका-सासादनसम्यग्दृष्टिपना भी सम्यक्त्व और चारित्र, इन दोनोंके विरोधी अनन्तानबन्धी चतुष्कके उदयके विना नहीं होता है, इसलिए इसे औदयिक क्यों नहीं मानते हैं ?
समाधान-यह कहना सत्य है, किन्तु उस प्रकारकी यहां विवक्षा नहीं है, क्योंकि, आदिके चार गुणस्थानोसम्बन्धी भावोंकी प्ररूपणामें दर्शनमोहनीय कर्मके सिवाय शेष कर्मोंके उदयकी विवक्षाका अभाव है। इसलिए विवक्षित दर्शनमोहनीयकर्मके उदयसे, उपशमसे, क्षयसे अथवा क्षयोपशमसे नहीं होता है, अतः यह सासादनसम्यक्त्व निष्कारण है और इसीलिए इसके पारिणामिकपना भी है।
शंका-इस न्यायके अनुसार तो सभी भावोंके पारिणामिकपनेका प्रसंग प्राप्त होता है ?
समाधान-यदि उक्त न्यायके अनुसार सभी भावोंके पारिणामिकपनेका प्रसंग आता है, तो आने दो, कोई दोष नहीं है, क्योंकि, इसमें कोई विरोध नहीं आता।
शंका-यदि ऐसा है, तो फिर अन्य भावोंमें पारिणामिकपनेका व्यवहार क्यों नहीं किया जाता है ?
समाधान नहीं, क्योंकि, सासादनसम्यक्त्वको छोड़कर विवक्षित कर्मसे नहीं उत्पन्न होनेवाला अन्य कोई भाव नहीं पाया जाता।
१ एदे भावा णियमा दंसणमोहं पडुच भणिदा हु। चारितं णत्थि जदो अविरदअंतस ठाणेसु॥गो.जी. १२.
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