Book Title: Shatkhandagama Pustak 05
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, ६, ३१२.
१५० ]
जहाकमेण वे विमिच्छत्त-सम्मत्ताणि पडिवण्णा (५) । चदु- पंचअंतोमुहुत्तेहि ऊणाणि एक्कत्तीस सागरोवमाणि मिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीणमुक्कस्संतरं ।
सासणसम्मादिट्टि सम्मामिच्छादिट्टीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च ओघं ॥ ३१२ ॥
सुगममेदं ।
एगजीवं पडुच्च जहण्णेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, अंतोमुहुर्त्तं ॥ ३१३ ॥
एदं पि सुगमं ।
उक्कस्सेण एक्कतीसं सागरोवमाणि देणाणि ॥ ३१४ ॥ एदं पि सुगमं ।
प्राप्त हुआ (४) । दूसरा जीव सम्यक्त्वके साथ ही रहा । आयुके अन्तमें यथाक्रमसे दोनों ही जीव मिथ्यात्व और सम्यक्त्वको प्राप्त हुए ( ५ ) । इस प्रकार चार अन्तमुर्तीसे कम इकतीस सागरोपमकाल शुक्ललेश्यावाले मिथ्यादृष्टिका उत्कृष्ट अन्तर है और पांच अन्तर्मुहूर्तोंसे कम इकतीस सागरोपमकाल असंयत सम्यग्दृष्टिका उत्कृष्ट अन्तर है।
शुक्लेश्यावाले सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है ।। ३१२ ॥
यह सूत्र सुगम 1
उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर क्रमशः पल्योपमका असंख्यातवां भाग और अन्तर्मुहूर्त है ॥ ३१३ ॥
यह सूत्र भी सुगम है ।
उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागरोपम है ॥ ३१४ ॥
यह सूत्र भी सुगम है ।
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२ सासादमसम्यग्दृष्टि सम्यग्मिथ्यादृष्टयोर्नान जीवापेक्षया सामान्यवत् । स. सि. १, ८.
२ एकजीव प्रति जघम्येन पश्योपमासंख्येयभागोऽन्तर्मुहूर्तश्च । स. सि. १, ८.
३ उत्कर्षेणैकत्रिंशत्सागरोपमाणि देशोनामि । स. सि. १, ८.
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