Book Title: Shatkhandagama Pustak 05
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, ६, ३४८.] अंतराणुगमे खइयसम्मादिट्ठि-अंतरपरूवणं खइयं पट्टविय (३) उवसमसेडीपाओग्गविसोहीए विसुद्धो (४) अपुग्यो (५) अणियट्टी (६) सुहुमो (७) उवसंतो (८) पुणो सुहुमो (९) अणियट्टी (१०) अपुग्यो जादो (११) अंतरिदो । पुवकोडिं संजममणुपालिय तेत्तीससागरोवमाउट्ठिदिगेसु देवेसु उववण्णो । तदो चुदो पुयकोडाउगेसु मणुसेसु उववण्णो। अंतोमुहुत्तावसेसे जीविए अपुरो जादो (१२) । लद्धमंतरं । तदो अणियट्टी (१३) सुहुमो (१४) उवसंतो (१५) पुणो सुहुमो (१६) अणियट्टी (१७) अपुबो जादो (१८)। उवरि अप्पमत्तादिणवअंतोमुहुत्तेहि सिद्धिं गदो । एवमट्ठवस्सेहि सत्तावीसअंतोमुहुत्तेहि ऊणदोपुव्वकोडीहि सादिरेयाणि तेत्तीसं सागरोवमाणि अंतरं । एवं चेव तिण्हमुवसामगाणं । णवरि पंचवीस तेवीस एक्कवीस मुहुत्ता ऊणा कादव्वा ।
चदुण्हं खवा अजोगिकेवली ओघं ॥ ३४७ ॥ सजोगिकेवली ओघं ॥३४८॥
उपशमश्रेणीके योग्य विशुद्धिसे विशुद्ध हो (४) अपूर्वकरण (५) अनिवृत्तिकरण (६) सूक्ष्मसाम्पराय (७) उपशान्तकषाय (८) हो, पुनः सूक्ष्मसाम्पराय (९) अनिवृत्तिकरण (१०) अपूर्वकरण हुआ (११) और अन्तरको प्राप्त होगया। पुनः पूर्वकोटि तक संयमको परिपालनकर तेतीस सागरोपमकी आयुस्थितिवाले देवोंमें उत्पन्न हुआ। वहांसे च्युत हो पूर्वकोटीकी आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ। जीवनके अन्तर्मुहूर्त अवशिष्ट रह जाने पर अपूर्वकरण हुआ (१२)। इस प्रकार अन्तर लब्ध होगया। पुनः अनिवृत्तिकरण (१३) सूक्ष्मसाम्पराय (१४) उपशान्तकषाय (१५) पुनः सूक्ष्मसाम्पराय (१६) अनिवृत्तिकरण (१७) और अपूर्वकरण (१८) हुआ। पश्चात् ऊपरके अप्रमत्तादि गुणस्थानसम्बन्धी नौ अन्तर्मुहूर्तोंसे सिद्धिको प्राप्त हुआ। इस प्रकार आठ वर्षोंसे और सत्ताईस अन्तर्मुहूताँसे कम दो पूर्वकोटियोंसे साधिक तेतीस सागरोपमकाल क्षायिकसम्यग्दृष्टि अपूर्घकरणसंयतका उत्कृष्ट अन्तर है । इसी प्रकार शेष तीन उपशामकोंका भी अन्तर जानना चाहिए । विशेषता यह है कि अनिवृत्तिसंयत उपशामकके पच्चीस अन्तर्मुहूर्त, सूक्ष्मसाम्पराय उपशामकके तेवीस अन्तर्मुहूर्त और उपशान्तकषायके इक्कीस अन्तर्मुहूर्त कम करना चाहिए।
क्षायिकसम्यग्दृष्टि चारों क्षपक और अयोगिकेवलीका अन्तर ओघके समान है॥ ३४७॥
क्षायिकसम्यग्दृष्टि सयोगिकेवलीका अन्तर ओघके समान है ॥ ३४८ ॥
१ शेषाणां सामान्यवत् । स. सि. १, ८.
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