Book Title: Shatkhandagama Pustak 05
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१९४] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, ७, २. __ ओघेण मिच्छादिट्टि त्ति को भावो, ओदइओ भावों ॥२॥
'जहा उद्देसो तहा णिदेसो' त्ति जाणावणट्ठमोघेणेत्ति भणिदं । अत्थाहिहाणपच्चया तुल्लणामधेया इदि णायादो इदि-करणपरो मिच्छादिहिसदो मिच्छत्तभावं भणदि। पंचसु भावेसु एसो को भावो त्ति पुच्छिदे ओदइओ भावो त्ति तित्थयरवयणादो दिव्यज्झुणी विणिग्गया । को भावो, पंचसु भावेसु कदमो भावो त्ति भणिदं होदि । उदये भवो ओदइओ, मिच्छत्तकम्मस्स उदएण उप्पण्णमिच्छत्तपरिणामो कम्मोदयजणिदो त्ति ओदइओ । णणु मिच्छादिहिस्स अण्णे वि भावा अस्थि, णाण-दंसण-गदि-लिंग-कसायभव्वाभव्यादिभावाभावे जीवस्स संसारिणो अभावप्पसंगा। भणिदं च---
मिच्छत्ते दस भंगा आसादण-मिस्सए वि बोद्धव्वा । तिगुणा ते चदुहीणा अविरदसम्मस्स एमेव ॥ १३ ॥ देसे खओवसमिए विरदे खवगाण ऊणवीसं तु ।
ओसामगेसु पुध पुध पणतीसं भावदो भंगा ॥ १४ ॥ ओघनिर्देशकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टि यह कौनसा भाव है ? औदयिक भाव है ॥२॥
'जैसा उद्देश होता है उसी प्रकार निर्देश होता है' इस न्यायके ज्ञापनार्थ सूत्रमें 'ओघ' ऐसा पद कहा। अर्थ, अभिधान (शब्द) और प्रत्यय (ज्ञान ) तुल्य नामवाले होते हैं, इस न्यायसे 'इति' करणपरक अर्थात् जिसके पश्चात् हेतुवाचक इति आया है, ऐसा 'मिथ्यादृष्टि' यह शब्द मिथ्यात्वके भावको कहता है। पांचों भावोंमेंसे यह कौन भाव है ? ऐसा पूछनेपर यह औदयिक भाव है, इस प्रकार तीर्थंकरके मुखसे दिव्यध्वनि निकली है । यह कौन भाव है, अर्थात् पांचों भावों से यह कौनसा भाव है, यह तात्पर्य होता है । उदयसे जो हो, उसे औदयिक कहते हैं। मिथ्यात्वकर्मके उदयसे उत्पन्न होनेवाला मिथ्यात्वपरिणाम कर्मोदयजनित है, अतएव औदायक है।
शंका-मिथ्यादृष्टिके अन्य भी भाव होते हैं, उन शान, दर्शन, गति, लिंग, कषाय, भव्यत्व, अभव्यत्व आदि भावोंके अभाव माननेपर संसारी जीवके अभावका प्रसंग प्राप्त होता है । कहा भी है
मिथ्यात्वगुणस्थानमें उक्त भावोसम्बन्धी दश भंग होते हैं । सासादन और मिश्रगुणस्थानमें भी इसी प्रकार दश दश भंग जानना चाहिए । अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें वे ही भंग त्रिगुणित और चतुर्लीन अर्थात् (१०४३-४ = २६) छब्बीस होते हैं । इसी प्रकार ये छब्बीस भंग क्षायोपशमिक देशविरत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानमें भी होते हैं। क्षपकश्रेणीवाले चारों क्षपकोंके उन्नीस उन्नीस भंग होते हैं ।
१ सामान्येन तावत-मिथ्यादृष्टिरित्यौदयिको भावः। स. सि.१,८.मिच्छे खलु ओदइओ। गो.जी. ११. २ प्रतिषु 'इदिकरणपरे' इति पाठः ।
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