Book Title: Shatkhandagama Pustak 05
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
[६९
१, ६, ९३.] अंतराणुगमे देव-अंतरपरूवणं
भवणवासिय-वाणवेंतरजोदिसिय-सोधम्मीसाणप्पहुडि जाव सदार-सहस्सारकप्पवासियदेवेसु मिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णथि अंतरं, णिरंतरं ॥११॥
सुगममेदं सुत्तं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ ९२ ॥ कुदो ? णवसु सग्गेसु वट्टतमिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीणं अण्णगुणं गंतूणंतरिय लहुमागदाणं अंतोमुहुत्ततरुवलंभा ।
उक्कस्सेण सागरोवमं पलिदोवमं वे सत्त दस चोदस सोलस अट्ठारस सागरोवमाणि सादिरेयाणि ॥ ९३॥
मिच्छादिहिस्स उच्चदे-तिरिक्खो मणुसो वा अप्पिददेवेसु सग-सगुक्कस्साउद्विदिएसु उववण्णो । छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो (१) विस्संतो (२) विसुद्धो (३) वेदगसम्मत्तं पडिवण्णो । अंतरिदो अप्पणो उक्कस्साउटिदिमणुपालिय अवसाणे मिच्छत्तं गदो । लद्धमंतरं (४)। चदुहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणाओ अप्पप्पणो उक्कस्साउद्विदीओ मिच्छादिविउक्कस्संतरं होदि ।
भवनवासी, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क और सौधर्म-ऐशानसे लेकर शतार-सहस्रार तकके कल्पवासी देवोंमें मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ ९१ ॥
यह सूत्र सुगम है। उक्त देवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ ९२ ॥
क्योंकि, भवनत्रिक और सहस्रार तकके छह कल्पपटल, इन नौ स्वर्गों में रहनेवाले मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंके अन्य गुणस्थानको जाकर अन्तरको प्राप्त हो पुनः लघुकालसे आये हुओंके अन्तर्मुहूर्तप्रमाण अन्तरकाल पाया जाता है ।
उक्त देवोंका उत्कृष्ट अन्तर क्रमशः सागरोपम, पल्योपम और साधिक दो, सात, दश, चौदह, सोलह और अट्ठारह सागरोपमप्रमाण है ॥ ९३ ॥
इनमेंसे पहले मिथ्यादृष्टि देवोंका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं- कोई एक तिर्यंच अथवा मनुष्य अपने अपने स्वर्गकी उत्कृष्ट आयुवाले विवक्षित देवोंमें उत्पन्न हुआ। छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (१) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो (३) वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हो अन्तरको प्राप्त हुआ। पश्चात् अपनी उत्कृष्ट आयुस्थितिको अनुपालनकर अन्तमें मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। इस प्रकारसे अन्तर लब्ध हुआ (४)। इन चार अन्तर्मुहूतोसे कम अपनी अपनी आयुस्थितियां उन उन स्वर्गौके मिथ्यादृष्टि देवोंका उत्कृष्ट अन्तर है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org