Book Title: Shatkhandagama Pustak 05
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, ६, १४२.] अंतराणुगमे तसकाइय-अंतरपरूवर्ण
कुदो ? जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो; इच्चेएहि भेदाभावा ।
एगजीवं पडुच्च जहण्णेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, अंतोमुहुत्तं ।। १४१ ॥
सुगममेदं सुत्तं ।
उक्कस्सेण वे सागरोवमसहस्साणि पुवकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि, वे सागरोवमसहस्साणि देसूणाणि ॥ १४२ ॥
तं जधा- एक्को एइंदियट्ठिदिमच्छिदो असण्णिपंचिंदिएसु उववण्णो । पंचहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो (१) विस्संतो (२) विसुद्धो (३) भवणवासिय-वाणवेंतरदेवेसु आउअंबंधिदूण (४) विस्संतो (५) मदो भवणवासिय-वाणवेंतरदेवेसु उववण्णो । छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो (६) विस्संतो (७) विसुद्धो (८) उवसमसम्मत्तं पडिवण्णो (९) सासणं गदो । मिच्छत्तं गंतूणंतरिदो । तसहिदि परियट्टिदूण अवसाणे सासणं गदो। लद्धमंतरं । तदो तत्थ थावरपाओग्गमावलियाए असंखेज्जदिभागमच्छिदूण कालं गदो
___ क्योंकि, जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण अन्तर है, इस प्रकार ओघसे इनके अन्तरमें कोई भेद नहीं है।
उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर क्रमशः पल्योपमके असंख्यातवें भाग और अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है ॥ १४१ ॥
यह सूत्र सुगम है।
उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर क्रमशः पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक दो हजार सागरोपम और कुछ कम दो हजार सागरोपम है ॥ १४२ ॥
जैसे- एकेन्द्रियकी स्थितिमें स्थित कोई एक जीव असंज्ञी पंचेन्द्रियों में उत्पन्न हुआ। पांचों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (१) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो (३) भवनवासी या वानव्यन्तर देवोंमें आयुको बांधकर (४) विश्राम ले (५) मरा और भवनवासी या वानव्यन्तर देवोंमें उत्पन्न हुआ। छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (६) विश्राम ले (७) विशुद्ध हो (८) उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हो (९) सासादनगुणस्थानको गया। पश्चात् मिथ्यात्वको जाकर अन्तरको प्राप्त हुआ और त्रस जीवोंकी स्थितिप्रमाण परिवर्तन करके अन्तमें सासादनगुणस्थानको गया। इस प्रकार अन्तर लब्ध हुआ। तत्पश्चात् उस सासादनगुणस्थानमें स्थावरकायके योग्य आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण काल
१ एकजीवं प्रति जघन्येन पल्योपमासंख्येयभागोऽन्तर्मुहूर्तश्च । स. सि. १, ८.
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