Book Title: Shatkhandagama Pustak 05
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
१, ६, ३०१.] अंतराणुगमे किण्ह-णील-काउलेस्सिय-अंतरपरूवणं [१४५ सत्त-सागरोवमाणि उक्कस्संतरं ।
सासणसम्मादिहि-सम्मामिच्छादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च ओघ ॥ २९९ ॥
सुगममेदं।
एगजीवं पडुच्च जहण्णेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, अंतोमुहत्तं ॥३०॥
एदं पि सुगमं ।
उक्कस्सेण तेत्तीसं सत्तारस सत्त सागरोवमाणि देसूणाणि ॥ ३०१॥
तं जहा- तिण्णि मिच्छादिट्टी जीवा सत्तम-पंचम-तदियपुढवीसु किण्ह-णील-काउलेस्सिया उववण्णा । हि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदा (१) विस्संता (२) विसुद्धा (३) उवसमसम्मत्तं पडिवण्णा (४) सासणं गदा । मिच्छत्तं गंतूणंतरिदा । अंतोमुहुत्तावसेसे सागरोपम और कापोतलेश्यावाले असंयतसम्यग्दृष्टिका उत्कृष्ट अन्तर पांच अन्तर्मुहूर्तोंसे कम सात सागरोपम होता है।
उक्त तीनों अशुभलेश्यावाले सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है ॥२९९॥
यह सूत्र सुगम है।
उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर क्रमशः पल्योपमका असंख्यातवां भाग और अन्तर्मुहूर्त है ॥ ३०॥
यह सूत्र भी सुगम है।।
उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागरोपम, सत्तरह सागरोपम और सात सागरोपम है ॥ ३०१॥
जैसे- कृष्ण, नील और कापोतलेश्यावाले तीन मिथ्यादृष्टि जीव क्रमशः सातवीं, पांचवीं और तीसरी पृथिवीमें उत्पन्न हुए। छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (१) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो (३) उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुए (४)। पुनः सासादनगुणस्थानको गये । पश्चात् मिथ्यात्वको जाकर अन्तरको प्राप्त हुए। पुनः जीवनके अन्तर्मुहूर्त
१ सासादनसम्यग्दृष्टिसम्यग्मिथ्यादृष्टयो नाजीवापेक्षया सामान्यवत् । स. सि. १, ८. २ एकजीवं प्रति जघन्येन पल्योपमासंख्येयभागोऽन्तर्मुहूर्तश्च । स. सि. १,८. ३ उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत्सप्तदशसप्तसागरोपमाणि देशोनानि । स. सि. १,८. .
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org