Book Title: Shatkhandagama Pustak 05
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, ६, ३०५.] अंतराणुगमे तेउ-पम्मलेस्सिय-अंतरपरूवणं
[१४७ गंतूण सव्वजहण्णकालेण पडिणियत्तिय तं चेव गुणमागदा । लद्धमंतरं । ___ उक्कस्सेण वे अट्ठारस सागरोवमाणि सादिरेयाणि ॥३०४॥
तं जहा- वे मिच्छादिविणो तेउ-पम्मलेस्सिया सादिरेय-वे-अट्ठारससागरोवमाउद्विदिएसु देवेसु उववण्णा । छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदा (१) विस्संता (२) विसुद्धा (३) सम्मत्तं घेत्तूणंतरिदा। सगढिदिं जीविय अवसाणे मिच्छत्तं गदा (४) । लद्धं सादिरेय-बे-अट्ठारससागरोवममेत्तरं । एवं सम्मादिहिस्स वि। णवरि पंचहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणियाओ सगहिदीओ अंतरं ।।
सासणसम्मादिहि-सम्मामिच्छादिट्टीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च ओघं ॥ ३०५॥
सुगममेदं ।
अन्य गुणस्थानको जाकर सर्वजघन्य कालसे लौटकर उसी ही गुणस्थानको आगये। इस प्रकार अन्तर लब्ध हुआ।
उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागरोपम और साधिक अट्ठारह सागरोपम है ॥ ३०४ ॥
जैसे-तेज और पद्म लेश्यावाले दो मिथ्यादृष्टि जीव साधिक दो सागरोपम और साधिक अट्ठारह सागरोपमकी आयुस्थितिवाले देवोंमें उत्पन्न हुए। छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (१) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो (३) और सम्यक्त्वको ग्रहण कर अन्तरको प्राप्त हुये । पुनः अपनी स्थितिप्रमाण जीवित रहकर आयुके अन्तमें मिथ्यात्वको प्राप्त हुए (४)। इस प्रकार साधिक दो सागरोपमकाल तेजोलेश्यावाले मिथ्यादृष्टिका और साधिक अट्ठारह सागरोपमकाल पद्मलेश्यावाले मिथ्यादृष्टिका उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त होगया। इसी प्रकार तेज और पद्म लेश्यावाले असंयतसम्यग्दृष्टि जीवका भी अन्तर कहना चाहिए । विशेषता यह है कि पांच अन्तर्मुहूर्तोंसे कम अपनी अपनी स्थितिप्रमाण अन्तर . होता है।
तेजोलेश्या और पद्मलेश्यावाले सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है ॥ ३०५॥
__ यह सूत्र सुगम है।
१ उत्कर्षण सागरीपमे अष्टादश च सागरीपमाणि सातिरेकाणि । स. सि. १,८. २ सासादमसम्यग्दृष्टिसम्यग्मिथ्याष्टियो नाजीवापेक्षया सामान्यवत् । स. सि. १, 6.
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