Book Title: Shatkhandagama Pustak 05
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
१, ६, १५३.] अंतराणुगमे मण-वचि-कायजोगि-अंतरपरूवणं
एदं कायं पडुच्च अंतरं । गुणं पडुच्च उभयदो वि णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ १५२॥ सुगममेदं सुत्तं ।
एवं कायमग्गणा समत्ता । जोगाणुवादेण पंचमणजोगि-पंचवचिजोगी कायजोगि-ओरालियकायजोगीसु मिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिद्वि-संजदासंजद-पमत्तअप्पमत्तसंजद-सजोगिकेवलीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, गाणेगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ १५३ ॥
कुदो ? अप्पिदंजोगसहिदअप्पिदगुणट्ठाणाणं सबकालं संभवादो । कधमेगजीवमासेज अंतराभावो ? ण ताव जोगंतरगमणेणंतरं संभवदि, मग्गणाए विणासापत्तीदो। ण च अण्णगुणगमणेण अंतरं संभवदि, गुणंतरं गदस्स जीवस्स जोगंतरगमणेण विणा पुणो आगमणाभावादो । तम्हा एगजीवस्स वि णत्थि चेव अंतरं ।
यह अन्तर कायकी अपेक्षा कहा है। गुणस्थानकी अपेक्षा दोनों ही प्रकारसे अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ १५२ ॥ यह सूत्र सुगम है।
इस प्रकार कायमार्गणा समाप्त हुई। योगमार्गणाके अनुवादसे पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी और औदारिककाययोगियोंमें, मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत और सयोगिकेवलियोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी और एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ १५३ ॥
क्योंकि, सूत्रोक्त विवक्षित योगोंसे सहित विवक्षित गुणस्थान सर्वकाल संभव है। शंका–एक जीवकी अपेक्षा अन्तरका अभाव कैसे कहा ?
समाधान-सूत्रोक्त गुणस्थानोंमें न तो अन्य योगमें गमनद्वारा अन्तर सम्भव है, क्योंकि, ऐसा मानने पर विवक्षित मार्गणाके विनाशकी आपत्ति आती है । और न अन्य गुणस्थानमें जानेसे भी अन्तर सम्भव है, क्योंकि, दूसरे गुणस्थानको गये हुए जीवके अन्य योगको प्राप्त हुए विना पुनः आगमनका अभाव है। इसलिए सूत्रमें बताये गये जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं होता है।
१ योगानुवादेन कायवाङ्मानसयोगिनां मिथ्यादृष्टयसंयतसम्यग्दृष्टिसंयतासंयतप्रमत्ताप्रमत्तसयोगकेवलिनां नानाजीवापेक्षया एकजीवापेक्षया च नास्त्यन्तरम् । स. सि. १, ८. २ प्रतिषु ' अपगद ' इति पाठः ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org