Book Title: Shatkhandagama Pustak 05
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१२.] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, ६, २३९. सुगममेदं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ २३९ ॥
तं जहा- पमत्तापमत्तसंजदा अप्पिदणाणेण सह अण्णगुणं गंतूण पुणो पल्लट्टिय सबजहण्णेण कालेण तं चेव गुणमागदा । लद्धमंतोमुहुत्तं जहणंतरं ।।
उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि ॥ २४०॥
तं जहा- एक्को पमत्तो अप्पमत्तो (१) अपुल्यो (२) अणियट्टी (३) सुहुमो (४) उपसंतो (५) होदण पुणो वि सुहुमो (६) अणियट्टी (७) अपुल्यो (८) अप्पमत्तो जादो (९)। अद्धाखएण कालं गदो समऊणतेत्तीससागरोवमाउढिदिएसु देवेसु उववण्णो । तत्तो चुदो पुवकोडाउएसु मणुस्सेसु उववण्णो । अंतोमुहुत्तावसेसे जीविए पमत्तो जादो (१)। लद्धमंतरं। तदो अप्पमत्तो (२) । उवरि छ अंतोमुहुत्ता। अंतरस्स अब्भंतरिमेसु नवसु अंतोमुहुत्तेसु बाहिरिल्लअट्ठअंतोमुहुत्तेसु सोहिदेसु एगो अंतोमुहत्तो अवचिट्ठदे । तेत्तीसं सागरोवमाणि एगेणंतोमुहुत्तेण अब्भहियपुव्वकोडीए
यह सूत्र सुगम है।
तीनों ज्ञानवाले प्रमत्त और अप्रमत्तसंयतोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ २३९ ॥
जैसे- प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत जीव विवक्षित ज्ञानके साथ अन्य गुणस्थानको जाकर और पुनः पलटकर सर्वजघन्य कालसे उसी ही गुणस्थानको आये । इस प्रकार अन्तर्मुहूर्तप्रमाण जघन्य अन्तर लब्ध हुआ।
उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागरोपम है ॥ २४०॥
जैसे- कोई एक प्रमत्तसंयत जीव, अप्रमत्तसंयत (१) अपूर्वकरण (२) अनिवृत्तिकरण (३) सूक्ष्मसाम्पराय (४) और उपशान्तकषाय हो करके (५) फिर भी सूक्ष्मसाम्पराय (६) अनिवृत्तिकरण (७) अपूर्वकरण (८)और अप्रमत्तसंयत हुआ (९)।तथा गुणस्थानका कालक्षय हो जानेसे मरणको प्राप्त हो एक समय कम तेतीस सागरोपमकी आयुस्थितिवाले देवोंमें उत्पन्न हुआ। पश्चात् वहांसे च्युत हो पूर्वकोटीकी आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ और जीवनके अन्तर्मुहूर्तप्रमाण अवशिष्ट रहने पर प्रमत्तसंयत हुआ (१)। इस प्रकार अन्तर लब्ध होगया । पश्चात् अप्रमत्तसंयत हुआ (२)। इनमें ऊपरके छह अन्तमुहूर्त और मिलाये। अन्तरके भीतरी नौ अन्तर्मुहूर्तों से बाहरी आठ अन्तर्मुहूौके घटा देने पर एक अन्तर्मुहूर्त अवशिष्ट रहता है । ऐसे एक अन्तर्मुहूर्तसे अधिक पूर्वकोटीसे साधिक
१ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः। स. सि. १, ८. २ उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि सातिरकाणि । स. सि. १, ८.
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