Book Title: Shatkhandagama Pustak 05
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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८२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, ६, १४३. थावरकाएसु उववण्णो । आवलियाए असंखेज्जदिमागेण णवहि अंतोमुहुत्तेहि य ऊणिया तसकाइय-तसकाइयपज्जत्तहिदी अंतरं होदि ।
सम्मामिच्छादिद्विस्स उच्चदे- एक्को एइंदियट्ठिदिमच्छिय जीवो असण्णिपंचिंदिएसु उववण्णो। पंचहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो (१) विस्संतो (२) विसुद्धो (३) भवणवासिय-वाण-तरदेवेसु आउअंबंधिय (४) विस्सभिय (५) पुव्वुत्तदेवेसु उववण्णो । छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो (६) विस्संतो (७) विमुद्धो (८) उवसमसभ्मत्तं पडिवण्णो (९) । सम्मामिच्छत्तं गदो (१०)। मिच्छत्तं गंतूणंतरिदो सगढिदिं परिभमिय अंतोमुहुत्तावसेसाए तस-तसपज्जत्तट्ठिदीए सम्मामिच्छत्तं गदो । र.द्धमंतरं (११)। मिच्छत्तं गंतूण (१२) एइंदिएसु उपवण्णो । वारसअंतोमुहुत्तेहि ऊणिया तस-तसपज्जत्तहिदी उक्कस्संतरं होदि ।
असंजदसम्मादिटिप्पहुडि जाव अप्पमत्तसंजदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णस्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ १४३॥
सुगममेदं ।
तक रह कर मरा और स्थावरकायिकों में उत्पन्न हुआ। इस प्रकार आवाके असंख्यातवें भाग और नौ अन्तर्मुहूर्तोंसे कम त्रसकायिक और सकायिकपर्याप्तकोंकी स्थितिप्रमाण अन्तर होता है।
___ त्रसकायिक और त्रसकायिकपर्याप्तक सम्यग्मिथ्यादृष्टिका अन्तर कहते हैंएकेन्द्रिय जीवोंकी स्थितिको प्राप्त कोई एक जीव असंही पंचेन्द्रियों में उत्पन्न हुआ। पांच पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (१) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो (३) भवनवासी या वानव्यन्तर देवोंमें आयुको बांधकर (४) विश्राम ले (५) पूर्वोक्त देवोंमें उत्पन्न हुआ। छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (६) विश्राम ले (७) विशुद्ध हो (८) उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ (९)। पश्चात् सम्यग्मिथ्यात्वको गया (१०)। पुनः मिथ्यात्वको जाकर अन्तरको प्राप्त हुआ
और अपनी स्थितिप्रमाण परिभ्रमण करके उसकायिक और त्रसकायिकपर्याप्तककी स्थितिके अन्तर्महूर्त अवशेष रह जानेपर सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। इस प्रकार अन्तर लब्ध हुआ (११)। पीछे मिथ्यात्वको जाकर (१२) एकेन्द्रियों में उत्पन्न हुआ। इस प्रकार इन बारह अन्तर्मुहूतोंसे कम त्रस और सपर्याप्तकोंकी स्थिति ही उक्त दोनों प्रकारके सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर होता है।
असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर अप्रमत्तसंयत तक त्रसकायिक और त्रसकायिकपर्याप्तक जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ १४३ ॥
यह सूत्र सुगम है।
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