Book Title: Shatkhandagama Pustak 05
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, ६, १३६.] अंतराणुगमे थावरकाइय-अंतरपरूवणं
[७९ वणप्फदिकाइय-णिगोदजीव-बादर-सुहम-पज्जत्त-अपजत्ताणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं॥ १३३ ॥
सुगममेदं सुत्तं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ १३४ ॥
कुदो ? अप्पिदकायादो अणप्पिदकायं गंतूणं अइलहुएण कालेण पुणो अप्पिदकायमागदस्स खुद्दाभवग्गहणमेनंतरुवलंभा ।
उक्कस्सेण असंखेज्जा लोगा ॥ १३५॥
कुदो ? अप्पिदकायादो पुढवि-आउ-तेउ-बाउकाइएसु उप्पज्जिय असंखेज्जलोगमेत्तकालं तत्थेव परिभमिय पुणो अप्पिदकायमागदस्स असंखेज्जलोगमेत्तरुवलंभा ।
बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरपज्जत्त-अपज्जत्ताणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, पिरंतरं ॥ १३६ ॥
सुगममेदं सुतं ।
वनस्पतिकायिक, निगोद जीव, उनके बादर व सूक्ष्म तथा उन सबके पर्याप्तक और अपर्याप्तक जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ १३३॥
यह सूत्र सुगम है। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण है ॥१३४॥
क्योंकि, विवक्षित कायसे अविवक्षित कायको जाकर अतिलघु कालसे पुनः विवक्षित कायमें आये हुये जीवके क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण अन्तर पाया जाता है।
उक्त जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक है ॥ १३५ ॥
क्योंकि, विवक्षित वनस्पतिकायसे पृथिवी, जल, अग्नि और वायुकायिक जीवोंमें उत्पन्न होकर असंख्यात लोकमात्र काल तक उन्हींमें परिभ्रमण कर पुनः विवक्षित वनस्पतिकायको आये हुए जीवके असंख्यातलोकप्रमाण अन्तर पाया जाता है। .
बादर वनस्पतिकायिकप्रत्येकशरीर और उनके पर्याप्तक तथा अपर्याप्तक जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ १३६ ॥ __ यह सूत्र सुगम है।
१ वनस्पतिकायिकानां नानाजीवापेक्षया नास्यन्तरम् । स. सि. १,८. २ एकजीवापेक्षया जघन्येन क्षुद्रभवग्रहणम् । स.सि..,८. ३ उत्कर्षणासंख्येया लोकाः। स.सि.१,८.
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