Book Title: Shatkhandagama Pustak 05
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, ६, १२०. एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहत्तं ॥ १२० ॥
कुदो ? एदेसिमण्णगुणं गंतूण सव्वदहरेण कालेण पडिणियत्तिय अप्पप्पणो गुणमागदाणमतोमुहुर्ततरुवलंभा ।
उक्कस्सेण सागरोवमसहस्साणि पुव्वकोडिपुधत्तेणभहियाणि, सागरोवमसदपुधत्तं ॥ १२१ ॥
___ असंजदसम्मादिद्विस्स उच्चदे- एक्को एइंदियट्ठिदिमच्छिदो असष्णिपंचिंदियसम्मुच्छिमपज्जत्तएसु उववण्णो। पंचहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो (१) विस्संतो (२) विसुद्धो (३) भवणवासिय-वाणवेंतरदेवेसु आउअं बंधिय (४) विस्समिय (५) मदो देवेसु उववण्णो । छहि पज्जतीहि पज्जत्तयदो (६) विस्संतो (७) त्रिसुद्धो (८) उवसमसम्मत्तं पडिवण्णो (९)। उवसमसम्मत्तद्धाए छावलियाओ अत्थि त्ति आसाणं गदो अंतरिदो मिच्छत्तं गंतूण सगढिदिं परिभमिय अंते उवसमसम्मत्तं पडिवण्णो (१०)। पुणो सासणं गदो आवलियाए असंखेजदिभागं कालमच्छिदूण थावरकाएमु उववण्णो । दसहि अंतोमुहुत्तेहि
उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ।। १२० ॥
क्योंकि, इन असंयतादि चार गुणस्थानवी जीवोंका अन्य गुणस्थानको जाकर सर्पलघु कालसे लौटकर अपने अपने गुणस्थानको आये हुओंके अन्तर्मुहूर्तमात्र अन्तर पाया जाता है।
उक्त जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटीपृथक्त्वसे अधिक सहस्र सागरोपम तथा शतपृथक्त्व सागरोपम है ॥ १२१ ॥
इनमेंसे पहले असंयतसम्यग्दृष्टिका अन्तर कहते हैं- एकेन्द्रिय भवस्थितिको प्राप्त कोई एक जीव, असंही पंचेन्द्रिय सम्मूञ्छिम पर्याप्तकोंमें उत्पन्न हुआ। पांचों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (१) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो (३) भवनवासी या वानव्यन्तर देवोंमें आयुको बांधकर (४) विश्राम ले (५) मरा और देवोंमें उत्पन्न हुआ। छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (६) विश्राम ले (७) विशुद्ध हो (८) उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ (९) । उपशमसम्यक्त्वके कालमें छह आवलियां अवशेष रहने पर सासादन गुणस्थानको गया
और अन्तरको प्राप्त हुआ।पीछे मिथ्यात्वको जाकर अपनी स्थितिप्रमाण परिभ्रमणकर अन्तमें उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ (१०)। पुनः सासादन गुणस्थानको गया और वहांपर आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक रहकर स्थावरकायिकोंमें उत्पन्न हुआ। इस प्रकार इन दश अन्तर्मुहूतोंसे कम अपनी स्थितिप्रमाणकाल उक्त असंयतसम्यग्दृष्टिका
१ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १, ८. २ उत्कर्षेण सागरोपमसहस्रं पूर्वकोटीपृथक्त्वैरभ्यधिकम् । स. सि. १, ८.
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