Book Title: Shatkhandagama Pustak 05
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, ६, ११९. ]
अंतरागमे पंचिदिय - अंतर परूवणं
[ ७१
सम्मामिच्छादिट्ठिस्स उच्चदे- एक्को जीवो एइंदियट्ठिदिमच्छिदो असणिपंचिदिए उववण्णो । पंचहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो (१) विस्संतो ( २ ) विसुद्ध (३) भवणवासिय-वाणवेंतरेसु आउअं बंधिय ( ४ ) विस्समिय ( ५ ) देवेसु उबवण्णो । छहि पज्जतीहि पज्जत्तयदो (६) विस्संतो ( ७ ) विसुद्ध ( ८ ) उवसमसम्मत्तं पडिवण्णो (९) सम्मामिच्छत्तं गदो (१०) । मिच्छत्तं गंतूगंतरिय सगट्ठिदिं परिभमिय अंतोमुहुत्तावसेसे सम्मामिच्छत्तं गदो ( ११ ) । लद्धमंतरं । मिच्छत्तं गंतूण ( १२ ) एईदिएस उववष्णो | बारसेहि अंतोमुहुतेहि ऊणसगट्ठिदी सम्मामिच्छत्तुक्कस्संतरं ।
'जहा उद्देसो तहा णिद्देसो त्ति णायादो पंचिदियट्ठिदी पुव्वको डिपुधत्तेण भहियसागरोवमसहस्समेत्ता, पज्जत्ताणं सागरोवमसदपुधत्तमेत्ता त्ति वत्तव्धं ।
असंजदसम्मादिट्टिप्पहुडि जाव अप्पमत्तसंजदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, निरंतरं ॥ ११९ ॥
"
ममेदं सुतं ।
अब सम्यग्मिथ्यादृष्टि पंचेन्द्रिय जीवका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं- एकेन्द्रियकी स्थिति में स्थित एक जीव असंशी पंचेन्द्रियोंमें उत्पन्न हुआ । मनके विना शेष पांचों पर्याप्तियों से पर्याप्त हो ( १ ) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो (३) भवनवासी या वानव्यन्तरोंमें आयुको बांधकर ( ४ ) विश्राम ले (५) देवोंमें उत्पन्न हुआ। छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो ( ६ ) विश्राम ले (७) विशुद्ध हो (८) उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हो (९) सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ ( १० ) । पुनः मिथ्यात्वको जाकर और अन्तरको प्राप्त हो अपनी स्थितिप्रमाण परिभ्रमण कर आयुके अन्तर्मुहूर्तकाल अवशेष रह जाने पर सभ्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ ( ११ ) । इस प्रकार अन्तर लब्ध हुआ । पश्चात् मिथ्यात्वको जाकर (१२) एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न हुआ । ऐसे इन बारह अन्तर्मुहूर्तोंसे कम स्वस्थिति सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अन्तर है ।
' जैसा उद्देश होता है, उसीके अनुसार निर्देश होता है,' इस न्यायसे पंचेन्द्रिय सामान्यकी स्थिति पूर्वकोटीपृथक्त्वसे अधिक एक हजार सागरोपमप्रमाण होती है, और पंचेन्द्रिय पर्याप्तकों की स्थिति शतपृथक्त्वसागरोपमप्रमाण होती है, ऐसा कहना चाहिए ।
असंयत सम्यग्दृष्टिसे लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ ११९ ॥
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है ।
यह सूत्र सुगम
१ असंयतसम्यग्दृष्ट्याद्यप्रमत्तान्तानां नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । स. सि. १, ८.
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