Book Title: Shatkhandagama Pustak 05
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, ६, १२१.] अंतराणुगमे पंचिंदिय-अंतरपरूवणं
[७१ ऊणिया सगट्टिदी लद्धमुक्कस्संतरं । सागरोवमसदपुधत्तं देसूणमिदि वत्तव् ? ण, पंचिंदियपज्जत्तद्विदीए देसूणाए वि सागरोवमसदपुधत्तत्तादो । तं पि कधं णव्वदे ? सुत्ते देसूणवयणाभावादो। सण्णिसम्मुच्छिमपंचिंदिएसुप्पाइय सम्मत्तं गेहाविय मिच्छरोण किण्णांतराविदो ? ण, तत्थ पढमसम्मत्तग्गहणाभावा । वेदगसम्मत्तं किण्ण पडिवजाविदो? ण, एइंदिएसु दीहद्धमवविदस्स उव्वेल्लिदसम्मत्त-सम्मामिच्छत्तस्स तदुप्पायणे संभवाभावा ।
संजदासंजदस्स वुच्चदे- एक्को एइंदियट्ठिदिमच्छिदो सण्णिपंचिंदियपज्जत्तएसु उववण्णो तिण्णिपक्ख-तिण्णिदिवस-अंतोमुहुत्तेहि (१) पढमसम्मत्तं संजमासंजमं च जुगवं पडिवण्णो (२) छावलियाओ पढमसम्मत्तद्धाए अस्थि त्ति आसाणं गंतूणंतरिदो । मिच्छत्तं गंतूण सगढिदिं परिभमिय अपच्छिमे पंचिंदियभवे सम्मत्तं घेत्तूण दसणमोहणीयं
उत्कृष्ट अन्तर होता है।
शंका-पंचेन्द्रिय पर्याप्तकोंका जो सागरोपमशतपृथक्त्वप्रमाण उत्कृष्ट अन्तर बताया है, उसमें देशोन' ऐसा पद और कहना चाहिए ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, पंचेन्द्रिय पर्याप्तककी देशोन स्थिति भी सागरोपमशतपृथक्त्वप्रमाण ही होती है।
शंका--यह भी कैसे जाना जाता है ? समाधान—क्योंकि, सूत्रमें 'देशोन' इस वचनका अभाव है।
शंका-संशी सम्मूच्छिम पंचेन्द्रियोंमें उत्पन्न कराकर और सम्यक्त्वको ग्रहण कराकर मिथ्यात्वके द्वारा अन्तरको प्राप्त क्यों नहीं कराया ? ।
समाधान नहीं, क्योंकि, संशी सम्मूच्छिम पंचेन्द्रियोंमें प्रथमोपशमसम्यक्त्वके ग्रहण करनेका अभाव है।
शंका-वेदकसम्यक्त्वको क्यों नहीं प्राप्त कराया ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, एकेन्द्रियोंमें दीर्घ काल तक रहनेवाले और उद्वेलना की है सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिकी जिसने, ऐसे जीवके वेदकसम्यक्त्वका उत्पन्न कराना संभव नहीं है।
संयतासंयतका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं- एकेन्द्रियकी स्थितिको प्राप्त एक जीव, संशी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकों में उत्पन्न हुआ। तीन पक्ष, तीन दिवस और अन्तर्मुहूर्तसे (१) प्रथमोपशमसम्यक्त्वको तथा संयमासंयमको युगपत् प्राप्त हुआ (२)। प्रथमोपशमसम्यक्त्वके कालमें छह आवलियां अवशेष रहने पर सासादन गुणस्थानको प्राप्त कर अन्तरको प्राप्त हुआ। मिथ्यात्वको जाकर अपनी स्थितिप्रमाण परिभ्रमण करके अन्तिम पंचेन्द्रिय भवमें सम्यक्त्वको ग्रहण कर दर्शनमोहनीयका क्षय कर और संसारके
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