Book Title: Shatkhandagama Pustak 05
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, ६, ३४. ]
अंतरानुगमे रइय- अंतर परूवणं
[ २९
सासणसम्मादिट्टि सम्मामिच्छादिद्वीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥ ३१ ॥ एदस्स अत्थो सुगमो |
उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ॥ ३२ ॥
जा रिओ म्हि पलिदोषमस्स असंखेज्जदिभागपरूवणा कदा, तहा एत्थ वि कादव्वा ।
एगजीवं पडुच्च जहणेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, अंतोमुहुत्तं ॥ ३३ ॥
एदं पित्तं सुगमं चेय, रिओहि परुविदत्तादो ।
उक्कस्सेण सागरोवमं तिष्णि सत्त दस सत्तारस बावीस तेत्तीसं सागरोवमाणि देणाणि ॥ ३४ ॥
दस्स स्स अत्थे भण्णमाणे- सत्तमपुढवीसासणसम्मादिट्ठि-सम्मामिच्छा
उक्त सातों ही पृथिवियोंके सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि नारकियोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय है ॥ ३१ ॥
इस सूत्रका अर्थ सुगम है।
उक्त पृथिवियों में ही उक्त गुणस्थानोंका उत्कृष्ट अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भाग है || ३२ ||
जिस प्रकार नारकियोंके ओघ अन्तरवर्णनमें पल्योपमके असंख्यातवें भागकी प्ररूपणा की है, उसी प्रकार यहां पर भी करना चाहिए ।
उक्त गुणस्थानों का एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर क्रमशः पल्योपमका असंख्यातवां भाग और अन्तर्मुहूर्त है || ३३ ॥
यह सूत्र भी सरल ही है, क्योंकि, नारकियोंके ओघ अन्तरवर्णनमें प्ररूपित किया जा चुका है।
सातों ही पृथिवियों में उक्त दोनों गुणस्थानोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अंतर क्रमशः देशोन एक, तीन, सात, दश, सत्तरह, बाईस और तेतीस सागरोपम है ॥ ३४ ॥ इस सूत्र का अर्थ कहने पर - सातवीं पृथिवी के सासादन सम्यग्दृष्टि और सम्य
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