Book Title: Shatkhandagama Pustak 05
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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सिरि-भगवंत-पुप्फदंत-भूदबलि-पणीदो
- छक्खंडागमो सिरि-वीरसेणाइरिय-विरइय-धवला-टीका-समण्णिदो
तस्स
पढमखंडे जीवट्ठाणे
अंतराणुगमो अंताइमज्झहीणं दसद्धसयचावदीहिरं पढमजिणं ।
वोच्छं णमिऊणंतरमणंतरुत्तुंगसण्हमइदुग्गेज्झं ॥ अंतराणुगमेण दुविहो णिदेसो, ओघेण आदेसेण यं ॥१॥ णाम-ट्ठवणा-दव्व-खेत्त-काल-भावभेदेण छबिहमंतरं । तत्थ णामंतरसदो बज्झत्थे
आदि, मध्य और अन्तसे रहित अतएव अनन्तर, अर्थात् अनन्तज्ञानस्वरूप, और दशशतके आधे अर्थात् पांच सौ धनुष उंचाईवाले अतएव उत्तुंग, तथापि ज्ञान की अपेक्षा सूक्ष्म, अतएव अतिदुर्गाय, ऐसे प्रथम जिन श्री वृषभनाथको नमस्कार करके अन्तरानुयोगद्वारको कहता हूं, जिसमें अनन्तर अर्थात् अन्तर रहित गुणस्थानों व मार्गणास्थानोंका भी वर्णन है, तथा जिसमें उत्तुंग अर्थात् दीर्घकालात्मक व सूक्ष्म अर्थात् अत्यल्पकालात्मक अन्तरोंका भी कथन है, अतएव जो मतिज्ञान द्वारा दुर्ग्राह्य है।
अन्तरानुगमसे निर्देश दो प्रकारका है, ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश ॥१॥
नाम,स्थापना, द्रव्य,क्षेत्र, काल और भावके भेदसे अन्तर छह प्रकारका होता है। उनमें बाह्य अर्थोको छोड़कर अपने आपमें अर्थात् स्ववाचकतामें प्रवृत्त होनेवाला 'अन्तर'
१ विवक्षितस्य गुणस्य गुणान्तरसंक्रमे सति पुनस्तत्प्राप्तेः प्रामध्यमन्तरम् । तत् द्विविधम् , सामान्येन विशेषेण च । स. सि. १,८.
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