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श्रमण संस्कृति का प्राग-ऐतिहासिक अस्तित्व सम्मान्य और ब्राह्मण-विशिष्ट कहा है।' तथा व्रात्यकाण्ड की भूमिका के प्रसंग में उन्होंने लिखा है-'इसमें व्रात्य की स्तुति की गई है । उपनयनादि से हीन मनुष्य व्रात्य कहलाता है। ऐसे मनुष्य को लोग वैदिक कृत्यों के लिए अनधिकारी और सामान्यतः पतित मानते हैं। परन्तु यदि कोई व्रात्य ऐसा हो जो विद्वान् और तपस्वी हो तो ब्राह्मण उससे भले ही द्वेष करे परन्तु वह सर्वपूज्य होगा और देवाधिदेव परमात्मा के तुल्य होगा। व्रात्य ने अपने पर्यटन में प्रजापति को प्रेरणा दी थी।
____ डा० सम्पूर्णानन्दजी ने व्रात्य का अर्थ परमात्मा किया है।' डा० बलदेव उपाध्याय भी इसी मत का अनुसरण करते हैं। किन्तु समूचे व्रात्यकाण्ड का परिशीलन करने पर यह अर्थ संगत नहीं लगता। व्रात्यकाण्ड के कुछ सूत्र
वह संवत्सर तक खड़ा रहा। उससे देवों ने पूछा-वात्य ! तू क्यों खड़ा है ?
वह अनावृत्ता दिशा में चला। इससे (उसने) सोचा न लौटूंगा . अर्थात् जिस दिशा में चलने वाले का आवर्तन (लौटना) नहीं होता वह अनावृत्ता दिशा है । इसलिए उसने सोचा कि मैं अब न लौटूंगा। मुक्त पुरुष का ही प्रत्यावर्तन नहीं होता ।
तब जिस राजा के घरों पर ऐसा विद्वान् राजा व्रात्य अतिथि (होकर) आए। (इसको) (वह राजा) इस (विद्वान् के आगमन) को अपने लिए कल्याणकारी माने । ऐसा (करने से) क्षेत्र तथा राष्ट्र के प्रति
१. अथर्ववेद, १५।१।१११ सायण भाष्य : कञ्चिद् विद्वत्तमं महाधिकारं पुण्यशीलं विश्वसंमान्यं ब्राह्मणविशिष्ट व्रात्य
मनुलक्ष्य वचन मिति मंतव्यम् । २. वही, १५।१।११। ३. वही, १५।१।१।१ : व्रात्य आसीदीयमान एव स प्रजापति समरयत् ॥ ४. अथर्ववेदीयं व्रात्यकाण्ड, पृ० १ । ५. वैदिक साहित्य और संस्कृति, पृ० २२६ । ६. अथर्ववेद, १५।१।३।१ । ७. वही, १५।१।६।१६ । सोऽनावृत्तां दिशमनुव्यऽचलत्ततो नावस्य॑न्नमन्थत । ८. अथर्ववेदीयं व्रात्यकाण्ड, पृ० ३६ ।
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