Book Title: Samyag Darshan Part 06
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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सम्यग्दर्शन : भाग-6]
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सम्यक्त्व, वह आत्माभिमुख परिणाम है। शुद्धनय द्वारा हुई आत्मा की अनुभूति, वह सम्यग्दर्शन का मुख्य चिह्न है। ऐसी शुद्धात्मा की अनुभूति, सम्यग्दृष्टि को ही होती है; मिथ्यादृष्टि को नहीं होती। सम्यग्दर्शन होते समय प्रत्येक सम्यग्दृष्टि को शुद्धनय द्वारा आत्मा का निर्विकल्प स्वसंवेदन होता है, उसमें अपूर्व शान्ति के वेदनसहित अपना आत्मा सच्चे स्वरूप से ज्ञात होता है; पश्चात् उसकी चेतनापरिणति, विकल्प के समय भी उससे भिन्न ही वर्तती है, वह अपने स्वरूप को छोड़ता नहीं है।
सम्यग्दर्शन के निमित्तों में अन्तरङ्ग तो मिथ्यात्वादि प्रकृतियों का उपशमादि है और बाह्य निमित्तों में साक्षात् तीर्थङ्करदेव के दर्शन, ज्ञानी धर्मात्मा गुरुओं का सत्सङ्ग, श्री जिनेन्द्रदेव के कल्याणक इत्यादि महिमा का देखना, जातिस्मरण होना, तीव्र वेदना का अनुभव, देवों की ऋद्धि का दर्शन, धर्म का श्रवण इत्यादि अनेक हैं। ऐसे निमित्त के प्रसङ्ग के समय यदि अपने परिणाम को अन्तर में आत्मा के सन्मुख करे तो सम्यग्दर्शन होता है। सम्यग्दर्शन होने पर आत्मा में क्या होता है?
सम्यग्दर्शन में आत्मा का जो आनन्दरस है, उसका स्वाद आता है; अनन्त गुण के स्वाद से गम्भीर ऐसी अपूर्व चैतन्य -शान्ति स्वसंवेदन में आ जाती है। अनुभूति में ज्ञान, इन्द्रियातीत अर्थात् अतीन्द्रिय होने से वह स्वसंवेदन प्रत्यक्ष है; अनन्त काल में नहीं अनुभव किया हुआ, रागरहित अपूर्व आत्मिक आनन्द का वेदन उसमें होता है। आत्मा स्वयं अपने में शान्तरस के समुद्र में ऐसा स्थिर होता है कि जहाँ दुःख का या आकुलता का नाम
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