Book Title: Samyag Darshan Part 06
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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[सम्यग्दर्शन : भाग-6
-तो कहते हैं कि ऐसा अनुभव चौथे गुणस्थान से ही होता है। ऐसी निर्विकल्प आनन्ददशा गृहस्थपने में रहे हुए सम्यग्दृष्टि को भी मति-श्रुतज्ञान द्वारा होती है। चौथे गुणस्थान में विशेषविशेष काल के अन्तर से कभी-कभी ऐसा अनुभव होता है। जब पहली बार चौथा गुणस्थान प्रगट हुआ, तब तो निर्विकल्प अनुभव हुआ ही था, परन्तु पश्चात् फिर ऐसा अनुभव अमुक विशेष काल के अन्तराल से होता है और फिर ऊपर-ऊपर के गुणस्थान में वैसा अनुभव बारम्बार होता है। पाँचवें गुणस्थान में चौथे की अपेक्षा अल्प-अल्प काल के अन्तर से अनुभव होता है; (चौथे गुणस्थानवाले किसी जीव को किसी समय तुरन्त ही ऐसा अनुभव हो, वह अलग बात है।) और छठे-सातवें गुणस्थानवर्ती मुनि को तो बारम्बार अन्तर्मुहूर्त में ही नियम से विकल्प टूटकर स्वानुभव हुआ करता है। सम्यग्दृष्टि को चौथे गुणस्थान में अधिक से अधिक कितने अन्तराल में स्वानुभव होता है-इस सम्बन्धी कोई निश्चित माप जानने में नहीं आता। छठे-सातवें गुणस्थानवर्ती मुनि के लिये तो नियम है कि अन्तर्मुहूर्त में निर्विकल्प उपयोग होता ही है।
अहो, यह निर्विकल्पता तो अमृत है !
समस्त मुनियों को सविकल्प के समय छठवाँ और क्षण में निर्विकल्पध्यान होने पर सातवाँ गुणस्थान होता है। जैसे सम्यग्दर्शन, निर्विकल्प-स्वानुभवपूर्वक प्रगट होता है; उसी प्रकार मुनिदशा भी निर्विकल्पध्यान में ही प्रगट होती है। पहले ध्यान में सातवाँ गुणस्थान प्रगट होता है और पश्चात् विकल्प उठने पर छठवें में आते हैं। मुनि को तो बारम्बार निर्विकल्पध्यान होता है। वे तो केवलज्ञान के एकदम निकट के पड़ोसी हैं। अहा! बारम्बार शुद्धोपयोग के आनन्द
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