Book Title: Samyag Darshan Part 06
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai

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Page 177
________________ www.vitragvani.com 162] [सम्यग्दर्शन : भाग-6 बीच में कदाचित् उत्कृष्ट पुण्य का संयोग आ जाय तो भी उसमें उसे कुछ भी सुन्दरता प्रतीत नहीं होती, और न उसके द्वारा उसे आत्मा की किञ्चित् भी महत्ता मालूम होती। उसे अपने स्वतत्त्व की ही महिमा ऐसी होती है कि अन्य सभी से उसे निरन्तर उदासीनता ही रहती है। अहो! चैतन्यस्वरूप का सञ्चेतन करनेवाली मेरी ज्ञानचेतना, राग को कैसे उत्पन्न करे? एवं अन्य परवस्तु को करने की तो बात ही क्या? परपदार्थ मेरी निकट हो या दूर हो, किन्तु मेरा यह स्वतत्त्व तो उनसे हमेशा निराला ही है; वह स्वयं अपने से ही शोभित हो रहा है। मेरे स्वतत्त्व की अद्भुत सुन्दरता अन्य किसी पदार्थ की अपेक्षा नहीं रखती-इस प्रकार वह स्वयं अपने में ही तृप्त रहता है। -किसी अज्ञानी जीव को जरूर प्रश्न उठेगा कि क्या वे ज्ञानी जीव राज्य नहीं करते? गृहसंसार या व्यापार-धन्धे में शामिल नहीं होते? क्या भरत चक्रवर्ती आदि ने यह सब नहीं किया था? -अरे रे! बापू! ज्ञानी की ज्ञानदशा को तूने नहीं पहचाना। जो कार्य तेरे देखने में आये, वे सब रागपरिणति के कार्य हैं, ज्ञानपरिणति के वे कार्य नहीं हैं। ज्ञानपरिणति और रागपरिणति दोनों के कार्य सर्वथा भिन्न हैं। ज्ञानपरिणति में तन्मय ज्ञानी, स्वद्रव्य की चेतना के अतिरिक्त अन्य किसी भी वस्तु में तन्मयता नहीं करता; अतः उसका वह अकर्ता ही है। हाँ, अस्थिरता-अपेक्षा से उसके जो राग-द्वेष के परिणाम हैं, इतना दोष है, परन्तु ज्ञानचेतना उससे भिन्न है। उस चेतना को तू पहचान, तब तुझे ज्ञानी की अन्तरङ्गदशा की पहचान हो और तुझमें ऐसी ज्ञानदशा प्रकट हो जाय। Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.

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