Book Title: Samyag Darshan Part 06
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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[सम्यग्दर्शन : भाग-6
जिज्ञासु का प्रथम कर्तव्य :
आत्मतत्त्व का निर्णय [सम्यक्त्व-जीवन लेखमाला : लेखांक 12]
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सुख कहो या सम्यक्त्व कहो-वह जीव को प्रिय है। जिसमें सुख भरा है-ऐसे अपने ज्ञानस्वरूप का सच्चा निर्णय ज्ञान द्वारा करना ही सम्यक्त्व की विधि है; जिसने ऐसा निर्णय किया, उसे पात्रता | होकर उसे अन्तर में अनुभव होगा ही।
जिज्ञासु को सम्यग्दर्शन होने के पूर्व संसार के दुःखों से त्रस्त होकर आत्मा का आनन्द प्रगट करने की भावना जागृत होती है।
हे भाई! तू सुखी होना चाहता है न? तो तू अपने सच्चे स्वरूप को पहचान-कि जिसमें सच्चा सुख भरा है। आत्मा के स्वरूप का प्रथम सच्चा निर्णय करने की बात है। अरे! तू कौन है ? क्या क्षणिक पुण्य-पाप का कर्ता ही तू है? नहीं, नहीं; तू तो ज्ञान करनेवाला ज्ञानस्वभावी है। पर को ग्रहण करनेवाला या त्याग करनेवाला तू नहीं है; चेतकभाव ही तू है। आत्मा का ऐसा निर्णय, वही धर्म के प्रथम प्रारम्भ का (सम्यग्दर्शन का) उपाय है। ऐसा निर्णय न करे, तब तक जीव सम्यग्दर्शन की पात्रता में भी नहीं आया। मेरा सहजस्वभाव जानने का है-ऐसा ज्ञानस्वभाव का निर्णय, श्रुतज्ञान के बल से होता है, और वही सम्यक्त्व की रीति है। जिसने अपने ज्ञान में सच्चा निर्णय किया, उसे पात्रता हुई और उसे आत्म-अनुभव होगा ही; इसलिए तत्त्वनिर्णय ही जिज्ञासु जीव का प्रथम कर्तव्य है।
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