Book Title: Samyag Darshan Part 06
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai

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Page 193
________________ www.vitragvani.com 178] [सम्यग्दर्शन : भाग-6 करता। निवृत्तिपूर्वक तीर्थस्थानों में या सत्सङ्ग में रहकर आत्मसाधना करना उसे सुहाता है । वह उपयोग को निर्विकल्प करने के लिये तथा आत्मा की अनुभूति के लिये आत्मा की ओर आगे बढ़ता जाता है। विचारधारा को विशेष-विशेष सूक्ष्म करके आत्मा को परभाव से भिन्न करता है, अनेक प्रकार से आत्मा की सुन्दरता और गम्भीरता लक्ष्य में लेता है। अहो! मेरा आत्मतत्त्व कोई अगाध गम्भीर अद्भुतभावों से पूर्ण है। अनुभव करने में बीच में कौन से परिणाम मेरे को विघ्न कर रहे हैं ? तत्सम्बन्ध में बिना दम्भ किये सरलता से अपने परिणाम का संशोधन करता है और विघ्नकारी परिणामों को तोड़कर स्वरूप में पहुँच जाता है। नव तत्त्वों का स्वरूप समझकर उनमें से सारभूत तत्त्व का ग्रहण करता है। इस प्रकार स्वभाव का ग्रहण करता और परभावों को पृथक् करता वह जीव, अन्त में सर्व परभावों से भिन्न और निज स्वभावों से परिपूर्ण - ऐसे आत्मतत्त्व को खोज करके उसका सम्यग्दर्शन कर लेता है; उसके मुक्ति के दरवाजे खुल जाते हैं। सम्यग्दर्शन होने के बाद : अहो! यह आत्मपुरुषार्थी जीव अपने स्वकार्य को साधने में सफल हुआ। उसका ज्ञान, विकल्प से भिन्न हुआ; उसे आत्मा का साक्षात् दर्शन हुआ; अपने सत्यस्वरूप का ज्ञान हुआ; परिणाम में कषायरहित अपूर्व शान्ति हुई। प्रथम, अपूर्व क्षण के उस निर्विकल्प अनुभव के समय उपयोग इन्द्रियातीत होकर अपने आत्मा को ही चेतता था। 'मुझमें सम्यक्त्व प्रगट हुआ है और मेरा आत्मा शान्ति का वेदन करता है'-ऐसा भेद भी उस समय नहीं रहा था; आत्मा स्वयं अनन्त गुण की अनुभूतिस्वरूप ही था; पूर्व में कभी अनुभव Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.

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