Book Title: Samyag Darshan Part 06
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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सम्यग्दर्शन : भाग-6 ]
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अब क्यों न विचारत है मन से, कछु और रहा उन साधन से !
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ज्ञान को परविषय से भिन्न करके स्वविषय में लगावे, तभी मार्ग की सच्ची आराधना होती है । इन्द्रियज्ञान के व्यापार में ऐसी ताकत नहीं है कि आत्मा को स्वविषय बना करके जाने । आत्मा स्वयं परमात्मा है, उसे अपना ज्ञान करने के लिये इन्द्रिय की या राग की कुछ भी अपेक्षा नहीं है । इसलिए श्रीगुरु कहते हैं कि आत्मा पामर नहीं है परन्तु प्रभु है । यह आत्मा ऐसा नहीं है कि जो इन्द्रियज्ञान से अनुभव में आ जाय । ज्ञान जब इन्द्रिय का आलम्बन छोड़कर स्वालम्बी होता है, तब आनन्द का भण्डार आत्मा में ही दिखता है । वह स्वयं अपने स्वभाव के अवलम्बन से जिस ज्ञानरूप परिणमता है, वह ज्ञान ही मोक्ष को साधनेवाला है । ये इन्द्रियाँ तो देह के अङ्गभूत हैं, वे कहीं आत्मा के ज्ञान की उत्पत्ति का साधन नहीं हैं । अतीन्द्रिय ज्ञानस्वभावी आत्मा है, उसे साधन बनाकर जो ज्ञान हो, वही आत्मा को जानता है । पुण्य-पाप उसका स्वरूप नहीं है; राग की रचना, आत्मा का कार्य नहीं है। आत्मा का सत्य कार्य (अर्थात् परमार्थ लक्षण) तो ज्ञानचेतना है। उस चेतनास्वरूप से अनुभव में लेने से ही आत्मा सत्यस्वरूप से अनुभव में आता है। ऐसे आत्मा को स्वानुभूति में लेने से ही जीव को सम्यग्दर्शन / धर्म होता है ।
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सम्यग्दर्शन होने के बाद मुमुक्षु को आत्मा सदैव उपयोगस्वरूप ही दिखता है; वह अपने उपयोग को कभी जड़रूप या रागरूप नहीं मानता। उसका उपयोग बाहर से नहीं लाया जाता, परन्तु
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