Book Title: Samyag Darshan Part 06
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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[सम्यग्दर्शन : भाग-6
के चैतन्यरूप द्रव्य-गुण-पर्याय को जाने, उसमें ऐसे सर्वज्ञस्वभावी आत्मा का ज्ञान साथ ही आ जाता है। अरे! सर्वज्ञता की ताकत की क्या बात ! जिसे राग झेल नहीं सकता और राग का कण जिसमें समाता नहीं-ऐसे सर्वज्ञस्वभाव को तो स्वसन्मुख अतीन्द्रियज्ञान ही झेल सकता है। अरे! सर्वज्ञ अरिहन्त को अपने ज्ञान में समाहित किया – यह कोई साधारण बात है !
भाई ! तेरी ज्ञानपर्याय में तेरे स्वभाव को ही व्याप्त देख। तेरी ज्ञानपर्याय में परवस्तु या राग को व्याप्त न देख।
* अहा! ऐसा ज्ञानस्वभाव निर्णय करे, वहाँ तो पर से और राग से ज्ञान पृथक् पड़ जाता है। भेदज्ञान होकर मोक्षमार्ग खुल जाता है। हे भाई! जाननेरूप तेरा ज्ञान है, उस ज्ञान में कौन व्याप्त है ?
* ज्ञान में ज्ञात होते शरीरादि बाह्य पदार्थ, ज्ञान में व्याप्त नहीं हैं; वे तो ज्ञान से बाहर ही हैं। यदि अचेतन पदार्थ, ज्ञान में व्याप्त होकर तन्मय हों तो ज्ञान भी अचेतन हो जाये।
* राग-द्वेषादि भाव जो कि ज्ञान में अन्य ज्ञेयरूप से ज्ञात होते हैं, वे राग-द्वेषभाव भी ज्ञान में व्याप्त नहीं हैं। यदि ज्ञान में राग-द्वेष व्याप्त हों तो वे राग-द्वेष छूट जाने पर ज्ञान भी छूट जाये। राग-द्वेष के बिना ज्ञान का अस्तित्व नहीं रह सके-परन्तु राग-द्वेष के अभाव में भी ज्ञान तो अपने सर्वज्ञस्वरूप से शोभित हो रहा है; इसलिए ज्ञान में राग-द्वेष व्याप्त नहीं; फिर पूजा-भक्ति का शुभराग हो या विषय-कषायों का पापराग हो, वह ज्ञान का स्वरूप नहीं है।
* अब तीसरी बात : पूर्व की जो ज्ञानपर्याय है, वह व्यय होती है और बाद की ज्ञानपर्याय उत्पन्न होती है; वहाँ पूर्व की पर्याय, उस
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