Book Title: Samyag Darshan Part 06
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
View full book text
________________
www.vitragvani.com
144]
[सम्यग्दर्शन : भाग-6
रात्रिभोजन आदि के तीव्र पाप से भी वह दूर रहता है। अरे, जिसमें शान्ति की गन्ध भी नहीं, ऐसे निष्प्रयोजन पापकार्य, उस शान्ति के चाहक जीव को कैसे अच्छे लगें? उसको सत्समागम, वीतराग का पूजन-भक्ति, आत्मशान्ति के प्रतिपादक ग्रन्थों का पठनमनन इत्यादि में रस आता है। उसमें जो शभपरिणाम होता है उसे. तथा उस समय के ज्ञानरस के घोलन को वह भिन्न-भिन्न पहचानता है और उनमें से राग के भाग को वह धर्म का साधन नहीं मानता। राग से रहित ज्ञानरस कैसा है, वह ज्ञानी से एवं शास्त्र से समझकर अपने वेदन से उसका निर्णय करता है।
ज्ञानी की अनुभूति के अनुसार भेदज्ञान के अभ्यास से बारम्बार अपने निर्णय को घोलन करता है, उसका रस बढ़ता जाता है और बाहरी अन्य बातों का रस कम होता जाता है । इस प्रकार उसे मोह का जोर टूटता जाता है और ज्ञान का जोर बढ़ता जाता है। इस तरह अपने परिणाम को अन्य कार्यों से निवृत्त कर-करके अन्तर में भेदज्ञान की स्फूरणा करता जाता है। जैसे कि मैं एक शुद्ध ज्ञायक हूँ; मेरे ज्ञायकतत्त्व की परिणति भी ज्ञानरूप है, उसमें द्रव्यकर्मभावकर्म-नोकर्म नहीं हैं। मैं असंख्यप्रदेशी अपने अनन्त गुण से पूर्ण स्वतन्त्र हूँ; मेरे द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से मैं परिपूर्ण हूँ, और अन्य वस्तु के द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है। मैं तथा परद्रव्य सभी स्वतन्त्र हैं, अतः परद्रव्य में मैं कुछ नहीं कर सकता, एवं परद्रव्य मेरे में कोई लाभ-नुकसान नहीं कर सकते; ऐसी समझ के कारण उसे पर के प्रति निरपेक्षवृत्ति होती है, अतः पर में राग-द्वेष या क्रोध-मानादि कषाय का रस बहुत कम हो गया है। बाहर के कार्यों में उसे हठाग्रह नहीं रहता, अपितु वह
Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.