Book Title: Samyag Darshan Part 06
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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[सम्यग्दर्शन : भाग-6
। सम्यक्त्व, वीतरागभाव है ।
सम्यग्दर्शन होने के पश्चात् जीव को दो प्रकार के भाव होते हैं : एक रागरहित और दूसरा रागवाला; सम्यग्दर्शन हुआ, वह स्वयं रागरहित भाव है; सम्यग्ज्ञान हुआ, वह भी रागरहित है; चारित्र परिणति में अभी कितना ही राग बाकी है, परन्तु उसे ज्ञान का उपयोग जब स्व में जुड़ता है, तब बुद्धिपूर्वक राग का वेदन उस उपयोग में नहीं होता; वह उपयोग तो आनन्द के ही वेदन में मग्न है, इसलिए उस समय अबुद्धिपूर्वक का ही राग है और जब बाहर में उपयोग हो, तब सविकल्पदशा में जो राग है, वह बुद्धिपूर्वक का है, तथापि उस समय भी सम्यग्दर्शन स्वयं कहीं रागवाला नहीं हो गया है। भले कदाचित् उस समय 'सराग सम्यक्त्व' नाम दिया जाये, तथापि वहाँ दोनों का भिन्नपना समझ लेना कि सम्यग्दर्शन अलग परिणाम है और राग अलग परिणाम है; एक ही भूमिका में 'राग' और 'सम्यक्त्व' दोनों साथ में होने से वहाँ सराग सम्यक्त्व' कहा है। कहीं राग, वह सम्यक्त्व नहीं और सम्यक्त्व स्वयं राग नहीं है। चौथे गुणस्थान का सम्यग्दर्शन भी वास्तव में वीतराग ही है; और वीतरागभाव ही मोक्ष का साधन होता है; रागभाव मोक्ष का साधन नहीं होता।
सम्यग्दृष्टि को एक साथ दोनों धारायें होने पर भी, एक मोक्ष का कारण और दूसरा बन्ध का कारण-इन दोनों को भिन्न-भिन्न स्वरूप से पहिचानना चाहिए। बन्ध-मोक्ष के कारण भिन्न-भिन्न हैं। यदि उन्हें एक-दूसरे में मिला दें तो श्रद्धान में भूल होती है।
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