Book Title: Samyag Darshan Part 06
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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सम्यग्दर्शन : भाग-6]
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हमारे आत्मा में सम्यक्त्वरूपी श्रावण मास आने से अब मोह की ग्रीष्म ऋतु का ताप शान्त हो गया है और शान्त-शीतल रस की अविरल धारा असंख्य प्रदेशों में सर्वत्र बरस रही है; मोह की धूल अब नहीं उड़ती; स्वानुभवरूपी बिजली चमकने लगी है और धर्म के नवीन आनन्दमय अंकुर फूटे हैं। इस प्रकार धर्मी को सम्यग्ज्ञान की मेघवर्षा होने से परम आनन्द होता है। जिसके अन्तर में ऐसी सम्यग्ज्ञानधारा नहीं बरसती, वह अज्ञानी, मोह के ताप में जलता है, उसके तो दुष्काल है। ज्ञान की मेघवृष्टि के बिना उसे शान्ति कहाँ से होगी? इसलिए हे जीव! तू सम्यग्ज्ञान कर! __ अरे, तुझे अपना हित साथ लेने का यह अवसर है, तो उसमें विकार से ज्ञान को भिन्न करने का प्रयत्न नहीं करेगा तो तुझे मोक्ष का अवसर कहाँ से आयेगा? सुलगते हुए सूखे जङ्गल की भाँति राग की चाह में जलता हुआ यह संसार... उससे छूटने के लिये अपने चैतन्याकाश में से तू सम्यग्ज्ञान के शान्त-शीतल जल की मेघवृष्टि कर! ___ आत्मा की समझ में आये और आत्मा से हो सके-ऐसी यह बात है। एक ओर वीतरागी शान्तरस का समुद्र; दूसरी ओर संसार के रागरूपी दावानल, उन दोनों को भिन्न जाननेवाला सम्यग्ज्ञान, राग के दावानल को बुझा देता है और आत्मा को शान्त-तृप्त करता है। __जिस प्रकार शीतल बर्फ और उष्ण अग्नि-दोनों का स्पर्श बिल्कुल भिन्न है; उसी प्रकार शान्तरसरूप ज्ञान और आकुलतारूप राग-इन दोनों का स्वाद बिल्कुल भिन्न प्रकार का है, वह ज्ञान से जाना जाता है। राग से भिन्न ज्ञान के अचिन्त्य सुख का स्वाद
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