Book Title: Samyag Darshan Part 06
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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[सम्यग्दर्शन : भाग-6
में विकल्प की या किसी चीज़ की अपेक्षा नहीं है; पर से और विकल्प से अत्यन्त निरपेक्ष-सर्वथा निरपेक्ष, पर से अत्यन्त उदासीन यह अनुभव, प्रत्यक्ष-ज्ञानगम्य है। मति-श्रुत में भी स्वभावसन्मुखता के समय प्रत्यक्षपना-अतीन्द्रियपना है। ऐसा विशेष ज्ञान, वह अनुभव है और ऐसे अनुभव के साथ सम्यक्त्व सदा होता है। सम्यग्दृष्टि को ही ऐसा अनुभव होता है; मिथ्यादृष्टि को ऐसा अनुभव नहीं होता-यह नियम है।
कोई कहे कि निर्विकल्प अनुभव तो कभी हुआ नहीं, परन्तु सम्यक्त्व है-तो ऐसा नहीं होता। ऐसा निर्विकल्प अनुभव हो, तब ही सम्यक्त्व प्रगट होता है। ऐसे अनुभव द्वारा जीववस्तु स्वयं अपने शुद्धस्वरूप के स्वाद को प्रत्यक्षरूप से आस्वादती है और स्वरूप के ऐसे आस्वादपूर्वक उसकी जो प्रतीति हुई, वही सम्यग्दर्शन है। __और, कोई कहे कि सम्यक्त्व नहीं परन्तु आत्मा का अनुभव कभी-कभी हो जाता है तो उसकी बात मिथ्या है। अनुभव कभी सम्यक्त्व के बिना नहीं होता। विकार, वह जीववस्तु से बाह्य है। स्वानुभव में जीववस्तु, विकार से भिन्न होकर अपने शुद्धस्वरूप को ही आस्वादती है। अनुभव करनेवाली पर्याय को जीववस्तु के साथ अभेद करके कहा कि जीववस्तु स्वयं अनुभवरस को आस्वादती है। अनुभव के समय द्रव्य-पर्याय के भेद कहाँ हैं ? द्वैत ही नहीं; द्रव्य-गुण-पर्याय से अभेद एकरस आत्मा अद्वैतरूप निर्विकल्प स्वाद में आता है।
जैसे सूर्य से अन्धकार भिन्न है; वैसे ही चैतन्य के अनुभव से विकल्प भिन्न है। चैतन्य का अनुभव तो सूर्य जैसा प्रकाशमान है
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