Book Title: Samyag Darshan Part 06
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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[सम्यग्दर्शन : भाग-6
और कोई विशेषण जीवाश्रित हैं, उन्हें अज्ञानी भिन्न-भिन्न नहीं पहिचानता... जो बाह्य विशेषण हैं, उन्हें जानकर उनसे अरहन्तदेव का महानपना मानता है परन्तु जो जीव के विशेषण हैं, उन्हें यथावत् न जानकर, उनके द्वारा अरहन्तदेव का महानपना मात्र आज्ञानुसार मानता है अथवा अन्यथा भी मानता है; यदि जीव के यथावत विशेषण जाने तो मिथ्यादृष्टि रहे नहीं।'
शङ्का : कोई जीव अरहन्तादि का श्रद्धान करता है, उनके गुणों को पहिचानता है, तथापि उसे तत्त्वश्रद्धानरूप सम्यक्त्व नहीं होता; इसलिए जिसे अरहन्तादि का सच्चा श्रद्धान हो, उसे तत्त्वश्रद्धान अवश्य होता ही है - ऐसा नियम सम्भव नहीं है।
समाधान : तत्त्वश्रद्धान के बिना अरहन्तादि के ४६ आदि गुण वह जानता है, वहाँ पर्यायाश्रित (देहाश्रित) गुणों का भी जानपना होता नहीं क्योंकि जीव-अजीव की भिन्न जाति को पहिचाने बिना अरहन्त आदि के आत्माश्रित और शरीराश्रित गुणों को वह भिन्न-भिन्न नहीं जानता। यदि जाने, तब तो अपने आत्मा को परद्रव्य से भिन्न क्यों न जाने? यही प्रवचनसार, गाथा 80 में कहा है कि ....जो अरहन्त को द्रव्यत्व, गुणत्व और पर्यायत्व द्वारा जानता है, वह आत्मा को जानता है और उसका मोह नाश को प्राप्त होता है... अरहन्तादिक का स्वरूप तो आत्माश्रितभावों द्वारा तत्त्वज्ञान होने पर ही ज्ञात होता है; इसलिए जिसे अरहन्तादिक का सच्चा श्रद्धान हो, उसे तत्त्वश्रद्धान अवश्य होता ही है-ऐसा नियम जानना।
(मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ 222 तथा 326) देखो! यह अरहन्तादिक को पहिचानने की विधि ! 'अरहन्तादिक' कहा अर्थात् मुनि या सम्यग्दृष्टि इत्यादि धर्मात्मा
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