Book Title: Samyag Darshan Part 06
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
View full book text
________________
www.vitragvani.com
सम्यग्दर्शन : भाग -6 ]
में झूलते उन मुनि की अन्तर्दशा की क्या बात! अरे, सम्यग्दृष्टि श्रावक को भी ध्यान के समय तो मुनि जैसा गिना है। मैं श्रावक हूँ या मुनि हूँ-ऐसा कोई विकल्प ही उसे नहीं है; उसे तो ध्यान के समय आनन्द के वेदन में ही लीनता है। चौथे गुणस्थान में ऐसा अनुभव किसी समय होता है, पश्चात् जैसे-जैसे भूमिका बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे काल अपेक्षा से बारम्बार होता है और भाव अपेक्षा से लीनता बढ़ती जाती है। इस प्रकार स्वानुभव की गुणस्थानअनुसार विशेषता जानना।
[93
जैसे-जैसे गुणस्थान बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे कषायें घटती जाती हैं और स्वरूप में लीनता बढ़ती जाती है। धर्मी को गुणस्थानानुसार जितनी शुद्धि और जितनी वीतरागता हुई, उतनी शुद्धि और वीतरागता तो परसन्मुख के उपयोग के समय भी टिकी रहती है और उतना तो बन्धन उन्हें होता ही नहीं। चौथे गुणस्थान में निर्विकल्प ध्यान में हो, तथापि वहाँ अनन्तानुबन्धी के अतिरिक्त तीनों कषायों का अस्तित्व है और छठे गुणस्थान में शुभविकल्प में वर्तता हो, तथापि वहाँ अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण कषाय नहीं है, मात्र संज्वलन कषाय है; इसलिए स्वानुभूति में न हो, इससे उसे दूसरे की अपेक्षा अधिक कषायें हों - ऐसा नहीं है परन्तु इतना अवश्य है कि एक ही भूमिकावाले जीव, उस सविकल्पदशा में हों, उनकी अपेक्षा निर्विकल्पदशा के समय उन्हें कषायें बहुत ही मन्द हो जाती हैं और उतने ही प्रमाण में शान्ति का वेदन बढ़ जाता है ।
चौथे गुणस्थान में स्त्री-पुत्रादिवाले श्रावक को, अरे ! आठ वर्ष की बालिका को या तिर्यञ्च को भी उस निर्विकल्पदशा के समय
Shree Kundkund - Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.