Book Title: Samyag Darshan Part 06
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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सम्यग्दर्शन : भाग-6]
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अनुभव होता है, उसके साथ यही मैं हूँ'-ऐसी सम्यक् आत्मप्रतीति होती है, वही सम्यग्दर्शन है। वह सम्यग्दर्शन, निर्विकल्प स्वानुभव में हुआ, परन्तु फिर विकल्प में आने पर वह सम्यग्दर्शन चला नहीं जाता। भ्रान्तिरहित सम्यक् आत्मप्रतीति धर्मी को सदा रहा करती है।
9- ऐसा सम्यग्दर्शन, वह मोक्ष का द्वार है; उसके द्वारा ही मोक्ष का मार्ग खुलता है। उसका उद्यम ही प्रत्येक मुमुक्षु का पहला काम है और प्रत्येक मुमुक्षु से वह हो सकने योग्य है।
* अहा! सन्तों ने सम्यग्दर्शन का स्वरूप बहुत स्पष्ट बताया है। यह बात ऐसी सरस है कि यदि समझे तो अन्दर में जीव को स्वानुभूति का रङ्ग चढ़ जाये और राग का रङ्ग उतर जाये। आत्मा की शुद्ध अनुभूति, राग के रंग से रहित है; जिसे ऐसी स्वानुभूति का रङ्ग नहीं, वह राग में रँग जाता है । हे जीव! एक बार आत्मा में से राग का रङ्ग उतारकर स्वानुभूति का रङ्ग चढ़ा।
जिसे एक बार भी स्वानुभूति से शुद्धात्मा की प्रतीति हुई अर्थात् सम्यग्दर्शन हुआ, पश्चात् उसे स्वानुभव में हो, तब प्रतीति का जोर बढ़ जाये और बाहर शुभाशुभ में आवे, तब प्रतीति शिथिल पड़ जाये-ऐसा नहीं है और निर्विकल्पदशा के समय सम्यक्त्व, प्रत्यक्ष और सविकल्पदशा के समय सम्यक्त्व, परोक्ष-ऐसा प्रत्यक्ष-परोक्षपना सम्यक्त्व में नहीं है। अथवा निर्विकल्पदशा के समय निश्चयसम्यक्त्व और सविकल्पदशा के समय अकेला व्यवहारसम्यक्त्व - ऐसा भी नहीं है। धर्मी को सविकल्पदशा हो या निर्विकल्पदशा हो-दोनों समय शुद्धात्मा की प्रतीतिरूप निश्चयसम्यक्त्व तो अविच्छिन्नरूप से वर्त ही रहा है। यदि
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