Book Title: Samyag Darshan Part 06
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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[सम्यग्दर्शन : भाग-6
में ताकत नहीं; ज्ञान में इसको जानने की ताकत है, अन्तर के वेदन में भी आता है, परन्तु वाणी में उसका पूरा कथन नहीं आता; ज्ञानी की वाणी में उसका संकेत आता है। अरे! जो विकल्प को भी गम्य नहीं हो सकता-ऐसा निर्विकल्प अनुभव, वाणी के द्वारा कैसे गम्य हो जाय? वह तो स्वानुभवगम्य है।
एक सज्जन शक्कर का मीठा स्वाद ले रहा हो, वहाँ कोई दूसरा मनुष्य जिज्ञासापूर्वक उस शक्कर खानेवाले को देखे, या उसके समीप शक्कर के मीठे स्वाद का वर्णन सुने, तो इतने से उसके मुँह में शक्कर का स्वाद नहीं आ जाता;वह स्वयं शक्कर की डली लेकर अपने मुँह में रखकर चूसे (आस्वादे), तभी उसकी शक्कर के मीठे स्वाद का अनुभव होता है। वैसे कोई 'सज्जन' अर्थात् सन्त-धर्मात्मा-सम्यग्दृष्टि, निर्विकल्प-स्वानुभव में अतीन्द्रिय -आनन्द का मीठा स्वाद ले रहा हो, वहाँ दूसरा जीव जिज्ञासापूर्वक उस अनुभवी धर्मात्मा को देखे, या उसके समीप प्रेमपूर्वक उस अनुभव का वर्णन सुने, तो उतने से उसको निर्विकल्प अनुभूति का स्वाद नहीं आ जाता; वह जीव स्वयं अपने शुद्धात्मा को लक्ष्य में लेकर, उसे ही मुख्य करके, जब अन्तर्मुख उपयोग के द्वारा स्वानुभव करे, तभी उसको शुद्धात्मा के निर्विकल्प अनुभव के अतीन्द्रिय -आनन्द का मीठा स्वाद वेदन में आता है। __-ऐसा स्वानुभव होने पर सम्यग्दृष्टि जानता है कि अहो! मेरी वस्तु मुझे प्राप्त हुई। मेरे में ही विद्यमान मेरी वस्तु को मैं भूल गया था, वह धर्मात्मा गुरुओं के प्रसाद से मुझे प्राप्त हुई। अपनी वस्तु अपने में ही है, वह निजध्यान में प्राप्त होती है; बाहर के किसी रागादिभाव से वह प्राप्त नहीं होती, अर्थात् अनुभव में नहीं आती।
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