Book Title: Samyag Darshan Part 06
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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सम्यग्दर्शन : भाग-6]
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भी स्वानुभूतिवाले मोक्ष के साधक मेरे साधर्मी हैं, इन्होंने भी अपूर्व कार्य किया है ! यदि धर्मात्मा को देखकर प्रमोद न आवे और ईर्ष्याभाव हो तो समझना कि उस जीव को धर्म का प्रेम है ही नहीं। __धर्मदृष्टि में जो धर्म में बड़ा हो, वही बड़ा और पूज्य है। लौकिक दृष्टि में पुण्य से बडा, वह बडा कहलाता है परन्तु मोक्षमार्ग में तो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप गुण जिसमें हों, वही पूज्य-वन्दनीय है। सम्यग्दर्शनरहित भले चाहे जितना बड़ा हो, तथापि धर्म में उसकी बड़ेपन की कोई कीमत नहीं है। बाहर के पुण्य के ठाठ, वे कहीं जीव को मोक्ष का कारण नहीं होते; मोक्ष का कारण तो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र ही होते हैं; इसलिए उन गुण के धारक सन्त ही वन्दनयोग्य है। __ आचार्यदेव कहते हैं कि अहो! सिद्धि को साधनेवाले ऐसे रत्नत्रयगुणों के धारक शीलवन्त श्रमणों को मैं सम्यक्त्वसहित शुद्धभाव से वन्दना करता हूँ, अर्थात् मेरे आत्मा को भी ऐसे रत्नत्रय के शुद्धभावरूप परिणमित कराकर मैं मुक्ति को साधता हूँ। वाह ! देखो तो सही!! रत्नत्रय के प्रति आचार्यदेव का प्रमोद! रत्नत्रय-संयुक्त मुनिराज को देखने पर, धर्मी को प्रमोद आता है कि वाह ! धन्य तुम्हारा जीवन! तुमने जन्मकर अवतार सफल किया!
जिनशासन में सम्यग्दर्शनादि गुणों द्वारा महानता है। बाह्य वैभव से नहीं। तीर्थङ्करों को भी चँवर-छत्र इत्यादि जो बाह्य विभूति हैं, वह कहीं वन्दनीय नहीं तथा उस विभूति के कारण कोई तीर्थङ्कर वन्दनीय है-ऐसा भी नहीं; भगवान भी सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्ररूप गुणों के वैभव द्वारा ही वन्दनीय है। तथा ऐसी शङ्का भी
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