Book Title: Samyag Darshan Part 06
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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[सम्यग्दर्शन : भाग-6
साक्षात् आचरण तुझसे न हो सके तो कम से कम इतना तो अवश्य करना कि यथार्थ मार्ग जैसा है, वैसी उसकी श्रद्धा रखना। मार्ग को विपरीत मत मानना-ऐसा कहकर आचार्यदेव ने सम्यकश्रद्धा पर वजन दिया है। सम्यक्श्रद्धावाला जीव कदाचित् चाण्डाल देह में हो या पशु देह में हो, तथापि वह भगवान के मार्ग में है और सम्यक्श्रद्धारहित जीव, स्वर्ग में देव हो या बड़ा राजा हो या राजपाट छोड़कर व्रतादि पालन करता हो, तथापि राग को धर्म माननेवाला वह जीव, वीतराग भगवान के मार्ग से बाहर है। इसलिए हे जीव! तेरा हित चाहता हो तो तू वीतरागी जिनमार्ग को पहिचानकर उसकी श्रद्धा तो यथावत् रखना; श्रद्धा में शिथिलता मत करना। इस प्रकार आचार्य भगवान ने धर्म के मूलरूप सम्यग्दर्शन की आराधना का विशिष्ट उपदेश दिया है।
न धर्मो धार्मिकैः बिना अर्थात् धर्मात्मा के बिना धर्म नहीं होता—यह समन्तभद्रस्वामी का सूत्र है। जिसे धर्म का प्रेम हो, उसे धर्मात्मा के प्रति प्रेम होता ही है। धर्मात्मा का अनादर करनेवाला धर्म का भी अनादर करता है। कोई कहे कि धर्म का प्रेम है, परन्तु धर्मात्मा के प्रति प्रेम-उत्साह-आदर नहीं आता, तो उस जीव को वास्तव में धर्म का पता नहीं है; धर्म और धर्मी को उसने अत्यन्त भिन्न माना है। इसलिए वह गुण-गुणी को सर्वथा भिन्न माननेवाले एकान्ती-मिथ्यादृष्टि जैसा है। अरे! रत्नत्रय के आराधक मुनिराज भी दूसरे मुनिराज को देखने पर प्रमोद से उनका सत्कार करते हैं... अहो! ये भी रत्नत्रय के आराधक है-ऐसे रत्नत्रयधारक के प्रति प्रमोद आता है। उसी प्रकार जो सम्यग्दृष्टि हो, उसे दूसरे सम्यग्दृष्टि को देखने पर अन्तर में महाप्रमोद आता है कि वाह ! ये
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