Book Title: Samyag Darshan Part 06
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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सम्यग्दर्शन : भाग-6]
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होता। उस समय भी भेदज्ञान तो यथार्थरूप से वर्त ही रहा है; इसलिए उसका समस्त ज्ञान, सम्यग्ज्ञान ही है। लोगों को बाहर के जानपने की जितनी महिमा है, उतनी अन्दर के भेदविज्ञान की नहीं। सम्यग्दृष्टि का ज्ञान क्षण-क्षण में अन्तर में क्या काम करता है-उसकी लोगों को खबर नहीं है। प्रतिक्षण अन्दर में स्वभाव और परभाव के बंटवारे का अपूर्व कार्य उसके ज्ञान में हो ही रहा है। वह ज्ञान स्वयं राग से भिन्न पड़कर, स्वभाव की जाति का हो गया है; वह तो केवलज्ञान का टुकड़ा है। वह ज्ञान, इन्द्रिय-मन द्वारा नहीं हुआ परन्तु आत्मा द्वारा हुआ है। मेरा ज्ञान तो सदा ज्ञानरूप ही रहता है; रागरूप मेरा ज्ञान नहीं होता-ऐसे ज्ञान को ज्ञानरूप ही रखता हुआ वह सदा भेदज्ञानरूप, सम्यग्ज्ञानरूप परिणमता है; इस प्रकार उसका समस्त ज्ञान, सम्यग्ज्ञान ही है-ऐसा जानना।
एक जीव बहुत शास्त्र पढ़ा हुआ हो और बड़ा त्यागी होकर हजारों जीवों से पुजाता हो परन्तु यदि शुद्धात्मा के श्रद्धानरूप निश्चयसम्यक्त्व न हो तो उसका समस्त जानपना मिथ्या है; दूसरा जीव छोटा मेंढ़क, मछली, सर्प, सिंह, या बालक दशा में हो, शास्त्र के शब्द पढ़ना या बोलना न आता हो, तथापि यदि शुद्धात्मा के श्रद्धानरूप निश्चयसम्यक्त्व से सहित है तो उसका समस्त ज्ञान सम्यक् है और वह मोक्ष के पंथ में है; समस्त शास्त्रों के रहस्यरूप अन्दर का स्वभाव-परभाव का भेदज्ञान उसने स्वानुभव से जान लिया है। अन्दर में जो बाह्य के ओर की शुभ या अशुभ वृत्तियाँ उत्पन्न होती हैं, वह मैं नहीं, उनके वेदन में मेरी शान्ति नहीं; मैं तो ज्ञानानन्द हूँ-कि जिसके वेदन में मुझे शान्ति अनुभव में आती है। इस प्रकार अन्तर के वेदन में उस समकिती को भेदज्ञान तथा
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