Book Title: Samyag Darshan Part 06
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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सम्यग्दर्शन : भाग-6]
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विशेष जानने पर ज्ञानी का वज़न नहीं है, परन्तु मेरा जो ज्ञानस्वभाव है, उसमें स्थिर होऊँ, उतनी मुझे शान्ति है। अरे! ज्ञान कहीं आकुलता करेगा?—नहीं; ज्ञान तो निर्विकल्प होकर अन्तर में स्थिर होता है। ___ अन्तर में स्वसंवेदनज्ञान विकसित हुआ, वहाँ स्वयं को उसका वेदन हुआ। दूसरे उसे जानें या न जानें-उसकी कहीं ज्ञानी को अपेक्षा नहीं है। जिस प्रकार सुगन्धमय फूल खिलता है, उसकी सुगन्ध दूसरे लें या न लें, उसकी अपेक्षा फूल को नहीं होती, वह तो अपने में ही सुगन्ध से भरा है; उसी प्रकार धर्मात्मा को अपने में आनन्दमय स्वसंवेदन हुआ है, वह कहीं दूसरों को दिखाने के लिये नहीं है; दूसरे जानें तो मुझे शान्ति हो-ऐसा धर्मी को नहीं है; वह तो अन्तर में अकेले-अकेले अपने एकत्व में आनन्दरूप परिणमित हो रहा है।
बौद्ध, आत्मा को सर्वथा क्षणिक (वर्तमान पर्याय जितना ही) माननेवाले क्षणिकवादी कहे जाते हैं। परन्तु वास्तव में तो द्रव्यस्वभाव की शक्ति को जाने बिना, उसकी एक पर्याय का भी सच्चा ज्ञान नहीं होता; क्योंकि एक शुद्धपर्याय में भी इतनी शक्ति है कि वह अनादि-अनन्त द्रव्य को, उसके अनन्त गुणों को तथा तीनों काल की पर्याय को जान लेती है। अब एक पर्याय की इतनी शक्ति का स्वीकार करने जाये तो उसमें त्रिकाली द्रव्य-गुण-पर्याय का भी स्वीकार हो जाता है। इसके बिना शुद्धपर्याय की शक्ति का भी स्वीकार नहीं होता।
अरे! ज्ञानी की ज्ञानपर्याय में कितना सामर्थ्य है?-उसकी जगत को खबर नहीं है। पर्याय की अगाध शक्ति का निर्णय करने
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