Book Title: Samyag Darshan Part 06
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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[सम्यग्दर्शन : भाग-6
धर्मी को सम्यक्त्वधारा निरन्तर चालू है सबसे पहले जब आत्मानुभवसहित सम्यग्दर्शन प्रगट होता है, तब तो निर्विकल्पदशा ही होती है, ज्ञान का उपयोग अन्तर में स्थिर हो गया होता है परन्तु ऐसी निर्विकल्पदशा दीर्घ काल टिकती नहीं, इसलिए सविकल्पदशा आती है। इस प्रकार सम्यग्दृष्टि के परिणाम, निर्विकल्प और सविकल्प-ऐसे दोनों दशारूप होकर प्रवर्तते हैं। चौथे गुणस्थान में निर्विकल्प अनुभव न हो-ऐसा नहीं है। तथा सम्यग्दर्शन के पश्चात् विकल्प और राग हो ही नहीं - ऐसा भी नहीं है। सम्यग्दृष्टि गहस्थ को भी किसी-किसी समय निर्विकल्प अनुभूति होती है तथा चौथे-पाँचवें गुणस्थान में उसे भूमिकानुसार विषय-कषयादि के अशुभ तथा पूजा, दान, शास्त्र-स्वाध्याय, धर्मात्मा की सेवा, साधर्मी का प्रेम, तीर्थयात्रा इत्यादि के उत्कृष्ट शुभपरिणाम आते हैं। उसके अशुभपरिणाम अत्यन्त मन्द पड़ गये होते हैं, विषय-कषायों का प्रेम अन्दर में से उड़ गया होता है, अशुभ के समय भी नरकादि हल्की गति की आयुष्य का बन्धन तो उसे होता ही नहीं। देव-गुरु-धर्म के प्रति उत्साह-भक्ति, शास्त्र के प्रति भक्ति, उसका अभ्यास इत्यादि शुभपरिणाम विशेषरूप से होते हैं परन्तु उसका अन्तर तो इस शुभ से भी उदास है। उसके अन्तर में तो एक शुद्ध आत्मा ही बसा है।
ज्ञान के साथ विकल्प वर्तता है; इसलिए ऐसा कहा कि ज्ञान सविकल्परूप होकर वर्तता है; परन्तु वास्तव में कोई ज्ञान स्वयं विकल्परूप नहीं होता। ज्ञान तो ज्ञानरूप ही वर्तता है; विकल्प से भिन्न ही वर्तता है। ज्ञान और विकल्प, इन दोनों का भेदज्ञान धर्मी
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