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२. मानव देवगण भी मानवजन्म प्राप्त करने की अभिलाषा रखते हैं, क्योंकि मानव में मानवता की सुरभि भरी हुई होती है । परंतु मानवजीवन आज अनेक यातनाओं से भर गया है । आज मनुष्य-मनुष्य के बीच बैर की, विरोध की, कषायों की दीवारें खड़ी हो गई हैं । मनुष्य मनुष्य का सामूहिक कत्ल तक करता है । आत्मा का मूल्य भुला दिया गया है । मानवता मर चुकी है । मनुष्य पशु से भी अधिक अधम व दुष्ट बन गया है।
मानवता मानव को महामानव बनाती है, सब का मित्र बनाती है । तीर्थंकर भगवंत बनने के लिए, केवलज्ञान पाने के लिए सच्चे इंसान बनने की अत्यंत ही आवश्यकता है ।
श्रेष्ठ वैभव का सुखोपभोग करनेवाले अनुत्तर विमानवासी देव भी मनुष्य भव की इच्छा करते हैं । यहाँ त्याग है, संयम है, इसीलिए धरती ही स्वर्ग है । मनुष्य के विकास का क्षेत्र यह धरती ही है । परन्तु यहाँ के मनुष्य आँखें मूंद कर प्रभु से स्वर्ग की याचना करते हैं ।
पृथ्वी पर ही मानवता प्रगट होती है । यहीं मानव आत्मज्ञान प्राप्त करता है । इसलिए यहीं आत्मा को ऊर्ध्वगामी बनाना है।
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