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३५. विवेक विवेक अर्थात् अच्छी बुद्धि, जो हमें मिली है । पागल को देखकर हमें मन. में उसके लिए दया जागृत होती है क्योंकि पागल के पास विवेक नहीं होता । नयन, नासिका, कान, मुख एवं शरीर तो हमें और पागल को समान ही मिले हैं । लेकिन हम वही देखते हैं, जो हम देखना चाहते हैं, जब कि पागल मनुष्य जो नहीं देखने जैसा है वही देखता है
और जो बोलने जैसा नहीं है, वही बोल देता है । किंतु आज तो हम भी जो नहीं देखने जैसा है वही देखते हैं । इसीसे हमारा जीवन कटु हो गया है । आज इन्सान दुःखी है, क्योंकि उसने उलटा रास्ता अपनाया है । उसने इन्द्रियों का स्वच्छंद और विवेकहीन उपयोग करना शुरू कर दिया है ।
अगर जीवनसागर में तैर नहीं सकेंगे तो जीवन व्यर्थ हो जायेगा । मनुष्यजीवन प्राप्त करके डूबना नहीं है, तैरना है : इन्द्रियों के द्वारा तैरना है । जो मिला है उसका सदुपयोग करें।
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