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८१. अमृत जैन दर्शन में वेश से अधिक महत्त्व विचार को दिया जाता है । जब तक सम्यक्त्व प्राप्त न हो तब तक आत्मा की प्रगति नहीं हो सकती है । सम्यग्दर्शन संसार को पार करने के लिए नाव के समान है । सम्यक्त्व का दर्शन होते ही आत्मा का ख्याल
आ जाता है । वह संसार में भले ही रहता हो फिर भी वह अनासक्त होता है । आत्मज्ञन होते ही अंतर में आनंद व्याप्त हो जाता है । भौरे को एक बार रस प्राप्त हो जाता है तो वह उसे चूसता ही रहता है, [जन भी नहीं करता । ज्ञानरूपी अमृत के सागर में जिसने एक बार गोता लगाया उसके लिए विषय विष के समान बन जाते हैं ।।
ज्ञान ही पशु और मनुष्य के बीच अंतर बतानेवाला तत्त्व है । ज्ञान से पशु भी मनुष्य के जैसा बन जाता है । चंडकौशिक को ज्ञान प्राप्त होते ही वह आठवें देवलोक में गया । ज्ञान कर्मों को जला देता है । ज्ञान को जीवन में उतारना है । ज्ञन से इन्सान का मूल्य जाता बढ़ है । मोक्षमार्ग पर ले जानेवाला मार्गदर्शक भी ज्ञान ही है । संसार में राह बतानेवाला भी ज्ञान है । मनुष्य के जीवन का शृंगार भी ज्ञान है । मनुष्य ज्ञान से ही सुंदर लगता है ।
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