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८०. भ्रमणा जगत् में कोई ऐसा तत्त्व नहीं है, जो मृत प्राणी को जीवित कर सके । इसलिए तन से सेवा करनी चाहिए जगत में रह कर जो इकट्ठा किया है वह लोगों को दे देना चाहिए । परलोक के लिए दान कर के कुछ बो कर जाना चाहिए । इकट्ठा कम करके दान में अधिक देना चाहिए । हमें यात्रा में चलनेवाले कुत्ते की रोटी नहीं बनना चाहिए । संघ के साथ जानेवाले कुत्ते को खूब खाना मिलता है । पर भूख जितना खाकर, बाकी खाना वह कल के लिए गाड़ देता है, क्योंकि उसे मालूम नहीं कि यह संघ तो आगे जाने वाला है । इस प्रकार जो मनुष्य भ्रम में नहीं रहता है, वह तो जो करना है आज ही कर लेता है, वह कल का विचार नहीं करता है या कुछ इकट्ठा कर के नहीं रखता है।
हम यहाँ के निवासी नहीं, प्रवासी' हैं । यह संसार तो हमारा विश्रामगृह है । हमें यहाँ स्थिर होकर नहीं रहना है, यहाँ से तो अन्यत्र जाना है । यात्रा अनंत की है । इस संसारयात्राएँ को अगर समाप्त करना है, तो अहिंसा, संयम, तप आदि को जीवन में उतारना होगा, आहार, निद्रा, भय, मैथुन को जीतना होगा, दान, शील, तप, भाव आदि से जीवन को ऊर्ध्वगामी बनाना होगा।
रहना नहीं देश बिराना है ।'
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