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SUND
६५. समकित दृष्टि शुद्ध देव, गुरु और धर्म को भूलकर, आत्मा को भूलकर जो केवल जड़ पदार्थ का विचार करे, वह मिथ्यादृष्टि है । मिथ्यादृष्टि जीव की धर्म करने की वृत्ति केवल जड़ पदार्थों की प्राप्ति के लिए ही होती है । कई आत्माएँ समकित प्राप्त करके उसे खो देती हैं और जड़ पदार्थों में खो जाती हैं ।
संध्या के समय जैसे थोड़ा अंधकार होता है उस प्रकार सम्यक्त्व के बाद मिथ्यात्व आये तो वह अंधकार के बराबर है । समकित जीवन में आकर कई बार चला जाता है । पुद्गल में से पुद्गल बुद्धि चली जाय और आत्म-बुद्धि प्रकट होकर चैतन्य का प्रकाश प्राप्त हो जाय तो उसे चौथा गुणस्थान कहते हैं । समकितधारी आत्मा दुःख से कभी घबराती नहीं है । जब दुःख पड़ता है, तब वह मन में सोचती है कि मैंने दुःख के बीज बोये हैं इसलिए मैं दुःख भोगता हूँ । इस तरह प्राप्त दुःखों को वह समतापूर्वक भोगता है, आर्त्तध्यान करके नये दुःखों को जन्म नहीं देता ।
सद्गुण आ जाय और इलकाब मिले तो कोई हर्ज नहीं, लेकिन सद्गुण न आये और इलकाब मिले तो वह गलत है । समकिती
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