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७४. स्वानुभव द्रोणाचार्य सभी शिष्यों को पढ़ा रहे थे ।
उन्होनें पाठ दिया- “आत्मा की साधना के लिए क्रोध मत करना, क्षमा करना" -
'क्रोधं मा कुरु, क्षमां कुरु ।
यह पाठ सबने तो सीख लिया, किंतु युधिष्ठिर को यह पाठ नहीं हुआ । गुरुजी ने पूछा, “अभी तक पाठ क्यों याद नहीं हुआ ? ऐसा कहकर उन्होंने युधिष्ठिर को चाँटा जड़ दिया, फिर भी युधिष्ठिर को क्रोध नहीं आया । समता बनी रही । तब उन्होंने कहा, "गुरुदेव ! अब मुझे पाठ याद हो गया है दूसरे सभी शिष्य यधिष्ठिर का मजाक उड़ाने लगे, लेकिन उन्होंने सबको क्षमा कर दिया । जिसने समझ लिया है, वह नहीं समझनेवालों को समझ लेता है ।"
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जिह्वा कितना ही घी खाती है, मगर कभी चिकनी नहीं होती, उसी तरह जगत में रहकर भी जगत् की चिकनाहट से परे रहना है, अलिप्त रहना है । जैसे बकरा में... में...' करता है वैसे ही मृत्युधाम में भी जीव 'मेरा... मेरा...' करता हुआ जीता है, पर ज्ञानदशा के आते ही 'मेरा... मेरा...' सब चला जाता है ।
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