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४१. अरूपी आत्मा जिस प्रकार एरंडा उछलकर ऊपर ही जाता है, उसी प्रकार आत्मा भी देह में से निकलकर ऊपर जाने का प्रयत्न करती है; लेकिन जिस गति का आयुष्य बाँधा गया होता है, आत्मा को उसी गति में जाना पड़ता है ।
आत्मा के साथ रहे हुए कार्मण-तैजस् शरीर को ही भोजन चाहिए; अतः जहाँ खाते हैं, वहाँ पर शरीर बंधता है ।
आत्मा के प्रवेश के बाद प्रथम आहार फिर शरीर, इन्द्रियाँ, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन इस तरह छः प्रकार से हमारा गठन होता है । आत्मा तो आत्मा ही रहती है । चाहे वह तिर्यंच गति में जावे या नरक में, आत्मा का स्वरूप बदलता नहीं है । आत्मा शुद्ध है, बुद्ध है, निरंजन-निराकार है, अजर-अमर और अरूपी है।
हमें अपने से ऊपरवालों का नहीं, नीचेवालों का विचार करके साधना में आगे बढ़ना चाहिए ।
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